“समर्पण “
तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि
मैं तुम पर डोरे डाल रहा हूँ
तुम्हारे करीब और करीब आने का
प्रयास कर रहा हूँ
तुम्हारे ओंठ अक्सर
कली की पंखुरियों की तरह बंद होते है
कभी कभी तुम्हारा चेहरा
कमल की तरह खिला हुआ नजर आता हैं
ऐसे तो तुम मेरे लिए अजनबी ही हो
फिर भी मैंने तुहारी निगाहों में
अपने लिए चिर परिचित सी पहचान देखी है
इसीलिए मैं तुम्हारे विषय में
यह सब सोचने का साहस कर पा रहा हूँ
मेरे खाली समय के आँगन में
तुम परी सी आ धमकती हो
सूने कमरे में तब
तुम्हारे काल्पनिक आगमन की महक
मेरे इर्द गिर्द
अगरबत्ती के धुंए की तरह फ़ैल जाती है
पानी में धूप की स्वर्णीम लकीरों की तरह
तुम्हारा सौन्दर्य झिलमिलाने लगता है
चारों ओर जीवंत प्रकाश पसर जाता है
बादल धुनें हुए कपास की तरह
सफ़ेद दिखाई देने लगते हैं
पाँव डगमगाने लगते हैं
ऐसा महसूस होता हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर
कुछ क्षण के लिए घूमना भूल गयी है
गुलमोहर का रंग और गहरा जाता है
शाखों की पत्तीयाँ
मुझे छूने के लिए झुकी झुकी सी लगती हैं
सूरजमुखी मुझे आश्चर्य से निहारने लगती है
उमंग और प्रसन्नता से मेरा चित्त
भर उठता है
लेकिन तुम मुझमे आये इस परिवर्तन से
अनभिग्य रहती हो
तुम्हारे रूप और व्यैक्तित्व के प्रति
मेरा यह आकर्षण
मेरा यह समर्पण
नितांत व्यैक्तिगत और इकतरफा है
मेरी इस उपासना को
मेरी इस आराधना को
मेरे अतिरिक्त और कोई नहीं जानता
तुम कभी दृश्य हो
और कभी अदृश्य हो
तुम कभी साकार हो
और कभी निराकार हो
तुम प्रतिबिम्ब हो
इसलिए तुम ही
वन्दनीय बिम्ब भी हो
मेरे ह्रदय के मंदिर में
तुम्हारी ही रोशनी व्याप्त है
मेरे मन के वन में
तुम ही चन्दन के वृक्ष की तरह
ऊगी हुई हो
तुम चन्द्रमा हो
और मैं बादल
तुम्हारे नूर से मैं प्रकाशित हो रहा हूँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत गहरा अर्थ लिए रहस्यमय कविता. इसका मर्म हमारे जैसे साधारण व्यक्तियों की समझ में आना कठिन ही नहीं असंभव है.
वाह वाह किशोर जी , किया गज़ब ढा दिया .