कविता : दिल्ली चीख रही है
अभी तो दिल्ली चीख रही है जख्म जो कुरेदा उसे भर रही है पर राक्षसों की इस बस्ती में ज़बरन
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Read Moreमैं बिटिया हूँ चाहती हूँ मैं भी पंख फैलाये नील गगन में उड़ना, चाहती हूँ मैं भी अपने हक की
Read Moreनारी द्वारा नारी के लिए मैं एक नारी जो भ्रम नहीं एक सत्य है ,जड़ नहीं चेतन है, मैं कल्पना
Read Moreसिर्फ तुम और तुम्हारा वो अगणित प्रेम जानकार भी क्यों न जान पाया कभी आकाश में खिंचा हुआ वह दो
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