कविता : व्यथा पहाड़ की
विकास की छाती पर रख सिर रोता है पहाड़ न देखे उसकी दरकन न ही सुने दहाड़ ।। नंगी हो
Read Moreविकास की छाती पर रख सिर रोता है पहाड़ न देखे उसकी दरकन न ही सुने दहाड़ ।। नंगी हो
Read Moreकिसी रुद्र से परे नही हूं जब अपनी पर आती हूं स्वाभिमान की खातिर तो अग्नि तक से लड़ जाती
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