*अपना गाँव*
अपने गाँव पर लिखी एक पुरानी छोटी सी कविता याद आ गयी आपके समक्ष रख रहा हूँ
वो कोठरी
का काला कोना
चूल्हे से उठता धुँआ
जलती लकडियोँ के बीच
सिकती रोटियाँ
उन रोटियोँ की मिठास
और
वो अपनापन
भूल गये या याद है?
खेतोँ मेँ लहराती
सरसो,
नदियोँ का जल
बहता बरसोँ,
सर सराती वो हवा,
कलकल करती नदियाँ,
और वो बाग सुंदर
भूल गये या याद है?
{{सौरभ कुमार}}
अरे सौरव जी तुमने तो मेरा बचपन याद दिला दिया किओंकि मैं एक किसान का बेटा हूँ . मैंने खेतों में काम किया है . गेहूं से लेकर गन्ने तक हम ने बीजे थे . यह सरसों के खेत , नदी में छलांगें लगाना भूले नहीं सब याद हैं . वोह दिन अब से अछे थे किओंकि सवश पानी , कोई स्प्रे नहीं कोई यूरिया नहीं , घर की बनाई कम्पोस्ट . माँ के हाथ की चूलेह में सेंकी मक्की कि रोटीआं, सरसों का साग , घर का बनाया गुड़. बस वोह दिन !! वोह दिन !! वोह दिन .
जो ऐसे वातावरण में जिया है वो ताउम्र भूल नहीं सकता
आपकी रचना ये बताने में कामयाब है
अच्छी कविता. गाँव के जीवन का अपना ही आनंद है.
बहुत सुन्दर यथार्थ