कि मेरी आरजूएं जब से गुनाह हुई है
ये आँखे आंसुओं की ही पनाह हुई है
दर्द मेरे अब कैसे सुनायेंगे अफसाना अपना
अब तो बेअसर मेरे हर ज़ख्म की आह हुई है
कदम अब उठते ही नही ज़मीं में गड़े जाते है
जुदा जब से तुमसे, मेरी राह हुई है
कुछ और न भाया मेरी आँखों को और “अधृत”
खूबसूरती तेरी जब से, मेरी निगाह हुई है|
अच्छी ग़ज़ल.
शुक्रिया सर जी
बढ़िया ग़ज़ल. इसमें एक दो शेर और हो सकते थे.
जी गुंजाईश तो थी है भी मगर सिमित रखा खुद को..
अच्छी गजल.