गीतिका/ग़ज़ल

गुनाह

कि मेरी आरजूएं जब से गुनाह हुई है
ये आँखे आंसुओं की ही पनाह हुई है

दर्द मेरे अब कैसे सुनायेंगे अफसाना अपना
अब तो बेअसर मेरे हर ज़ख्म की आह हुई है

कदम अब उठते ही नही ज़मीं में गड़े जाते है
जुदा जब से तुमसे, मेरी राह हुई है

कुछ और न भाया मेरी आँखों को और “अधृत”
खूबसूरती तेरी जब से, मेरी निगाह हुई है|

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5 thoughts on “गुनाह

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल.

    • आनंद कुमार

      शुक्रिया सर जी

  • अजीत पाठक

    बढ़िया ग़ज़ल. इसमें एक दो शेर और हो सकते थे.

    • आनंद कुमार

      जी गुंजाईश तो थी है भी मगर सिमित रखा खुद को..

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी गजल.

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