उपन्यास : शान्तिदूत (बाईसवीं कड़ी)
अब कृष्ण इस राजसभा के बाद की घटनाओं पर विचार करने लगे।
पांडवों के पुरोहित ऋषि धौम्य युधिष्ठिर का सन्देश लेकर कौरवों की राजसभा में गये थे और उनके लौटने की प्रतीक्षा की जा रही थी। इधर सम्राट युधिष्ठिर की चिन्तायें बढ़ रही थीं। वे भली प्रकार अनुभव कर रहे थे कि अब युद्ध अपरिहार्य है। वे युद्ध से भयभीत नहीं थे, बल्कि इस बात से उनको चिन्ता हो रही थी कि अब उन्हें पितामह भीष्म, गुरुवर द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य से भी युद्ध करना पड़ेगा और यदि आवश्यक हुआ तो उनका वध भी करना पड़ेगा। वे जानते थे कि ये भले ही कौरवों की ओर से युद्ध करेंगे, लेकिन मन से ये चाहते हैं कि युधिष्ठिर को उनका न्यायपूर्ण अधिकार मिल जाये।
युधिष्ठिर यदि कौरव पक्ष के किसी योद्धा से भयभीत थे, तो वह था अंगराज कर्ण। वे जानते थे कि कर्ण ने स्वयं भगवान परशुराम से युद्धकला सीखी है और वह बल और वीरता में अर्जुन से किसी भी तरह कम नहीं है, बल्कि उससे कुछ अधिक ही होगा। वे यह भी जानते थे कि कर्ण ही एक ऐसा योद्धा है, जो पूरे मन से कौरवों के पक्ष में युद्ध करेगा, क्योंकि वह पांडवों से बहुत द्वेष मानता है। विशेष रूप से अर्जुन के प्रति वह बहुत निर्मम था। यही युधिष्ठिर की चिंता का सबसे बड़ा कारण था, जिससे उन्हें रात्रि को नींद भी नहीं आती थी।
युधिष्ठिर आदि सभी पांडव जानते थे कि भले ही पुरोहित धौम्य सन्देश लेकर हस्तिनापुर गये हैं, लेकिन उनको बिना युद्ध किये उनका राज्य मिल जाएगा इसकी कोई संभावना नहीं है। वे दुर्योधन की दुष्टता को अच्छी तरह जान गये थे और यह भी जानते थे कि उसके अंधे पिता महाराज धृतराष्ट्र केवल शारीरिक दोष से ही नहीं, बल्कि पुत्र मोह में भी भीतर तक अंधे हो चुके थे। वे पांडवों पर चाहे जितना प्रेम करने का दिखावा करें, परन्तु वास्तव में उनको पांडवों से लेशमात्र भी स्नेह नहीं है और वे यही चाहते हैं कि उनके छोटे भाई के वे सभी महान् गुणवान और धर्मात्मा पुत्र आजीवन वन-वन भटकते रहें और भीख मांगते रहें। इसलिए वे उनसे कोई आशा नहीं रखते। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण के कहने से ही वे दूत भेजने को तैयार हुए थे।
धौम्य ऋषि जब हस्तिनापुर पहुंचे, तो कौरवों ने उनके प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाया और एक साधारण दूत की तरह ही उनसे व्यवहार किया। परन्तु अवसर मिलते ही धौम्य ने कौरवों की राजसभा में पांडवों का पक्ष भली प्रकार रखा। उन्होंने सबसे पहले युधिष्ठिर तथा अन्य पांडवों की ओर से सभी गुरुजनों को प्रणाम निवेदित किया और उनकी कुशलक्षेम पूछी। फिर उन्होंने उनका राज्य लौटाने का निवेदन स्पष्ट शब्दों में किया। उन्होंने कहा कि पांडवों ने द्यूत क्रीड़ा की सभी शर्तों का पालन किया है। वे 12 वर्ष तक वनवास में रहे हैं और पूरे एक वर्ष तक अज्ञातवास में रहे हैं। अब उनकी ओर से कोई कर्तव्य शेष नहीं है। इसलिए द्यूत की शर्तों के अनुसार अब उन्हें उनका राज्य वापस दे देना चाहिए। यही न्याय है और इसी में सबकी कुशलता है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कह दिया कि पांडव नहीं चाहते कि राज्य के लिए उन्हें अपने ही सगे चचेरे भाइयों से युद्ध करना पड़े। लेकिन यदि उनका न्यायपूर्ण अधिकार नहीं दिया गया, तो वे युद्ध से पीछे नहीं हटेंगे, क्योंकि उनका पक्ष न्याय और धर्म का है। उन्होंने पांडवों की ओर से पितामह भीष्म, गुरु द्रोणाचार्य और स्वयं महाराज धृतराष्ट्र से भी व्यक्तिगत निवेदन किया कि वे पांडवों को उनका न्यायपूर्ण अधिकार मिलना सुनिश्चित करें।
जब धौम्य अपनी बात कह चुके, तो पितामह भीष्म, महात्मा विदुर, द्रोणाचार्य और कृपाचार्य सभी ने उनकी बात का समर्थन किया और यह मत व्यक्त किया कि पांडवों ने द्यूत की सभी शर्तों को पूर्ण कर दिया है और अब उनको उनका राज्य वापस दे देना चाहिए। यहां तक कि अंधे महाराज धृतराष्ट्र ने भी दुर्योधन को यह सलाह दी कि पुत्र तुम मान जाओ और पांडवों को उनका राज्य दे दो। लेकिन दुर्योधन ने स्पष्ट तौर पर मना कर दिया। उसका कहना था कि पांडवों ने अज्ञातवास पूर्ण नहीं किया है और उससे पहले ही उनको पहचान लिया गया है, इसलिए उनको फिर से 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास पर चले जाना चाहिए।
इतना ही नहीं उसने भीष्म, विदुर, द्रोण और कृप सभी पर यह आरोप लगा दिया कि आप सब खाते कौरवों का हैं और गाते पांडवों का। आप सब प्रारम्भ से ही मेरे प्रति द्वेष और पांडवों के प्रति प्रेम रखते रहे हैं, इसलिए उनके पक्ष का समर्थन कर रहे हैं। यह अनुचित आरोप सुनकर सभी क्रोध से उबल रहे थे, परन्तु अपने रोष को पीकर चुप होकर बैठ गये। हालांकि भीष्म ने उससे स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि इस तरह की बातें करके तुम अपने सर्वनाश को आमंत्रित कर रहे हो। अब तुम्हें विनाश से कोई नहीं बचा सकता।
विदुर ने भी दुर्योधन को बहुत समझाया, परन्तु वह अपने मित्र कर्ण के बल पर बहुत विश्वास करता था। उसका मानना था कि अकेला कर्ण ही सभी पांडवों और उनके साथियों को मार डालेगा। इसलिए उसे युद्ध का भय बिल्कुल नहीं था। अपने अंधे पिता को उसने कठपुतली की तरह नचा रखा था और वृद्धावस्था में उनकी स्थिति और भी दयनीय हो गयी थी। इसलिए दुर्योधन की अपमानजनक बातों पर रिरियाने के अलावा वे कुछ नहीं कर सके।
कौरव राजसभा में इस बात पर बहुत चर्चा हुई। काफी कहने योग्य और न कहने योग्य बातें भी कही गयीं। लेकिन उनका कोई परिणाम नहीं निकला। अन्ततः पांडवों के दूत और पुरोहित धौम्य से कह दिया गया कि वे अपना उत्तर दूत के द्वारा ही भेज देंगे।
यह उत्तर पाकर धौम्य उपप्लव्य नगर लौट आये और सारा हाल पांडवों की राजसभा में सुना दिया। सभी को वैसे भी दूत भेजने से किसी सकारात्मक परिणाम की आशा नहीं थी, अतः कौरवों की प्रतिक्रिया अनपेक्षित नहीं थी। अब सब लोग कौरवों का दूत आने की प्रतीक्षा करने लगे।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , अब यह कथा ऐसे मोड़ पर आ गई है कि यह तो तय है कि लड़ाई होगी ही लेकिन इस में एक बात आती है कि यह अब भी हमारे जीवन में हो रहा है . बहुत घरों में यह महांभारत का संघर्ष हो रहा है . बहुत ऐसे भाई हैं जो बहुत सी कम्पनिओं के मालिक हैं लेकिन फिर भी मुक्काद्में चल रहे हैं , मर्डर हो रहे हैं . इस में एक ही बात ज़ाहिर होती है कि आज के दुर्योधन भी अपने पांडव भाईओं को उन का बनता हिस्सा देना नहीं चाहते .
हा…हा…हा… बिलकुल सही कहा, भाई साहब. यह सब तुच्छ स्वार्थों की लड़ाई होती है.
आपका उपन्यास बढ़िया लगा।
आभार, मानसी जी.