लघुकथा

“हार”

“हार”
=====
रोहित गाँव पहुँचने के दो घंटे बाद ही, बहुत खुश हो अपनी प्रिंसिपल पत्नी को फोन करता है …”स्वीट हाट, अम्मा मान गयी, उसे कल ही लेके मैं आ रहा हूँ| वह “कमला वाला कमरा” जरा साफ़ करा देना, और हाँ स्टोर रुम में जो पिताजी की तस्वीर फेंक दी थी तुमने वह पड़ी होगी कहीं, उसे खोज कर उस पर सुंदर सा “हार” जरुर चढ़ा देना|” ” इतना तो कर सकती हो न मेरे लिय, ‘प्लीज’ …..” | सुन के सुषमा की आँखों से झर-झर आंसुओ की धारा बहने लगती है, पर पोते को देखने की ख़ुशी में कपड़ें लत्तें की एक गठरी बांध लेती हैं |

मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है, करें भी क्या बेचारी| खुद की आत्मा को टांग देती है दीवार पर लटकती अपने पति की तस्वीर पर “हार” की तरह, रुआसें स्वर में कहके कि “देखो मैं अपनी आत्मा तुम्हारे ही पास छोड़ रही हूँ, तुम्हारा ख्याल रखने के लिए”| ….उसे अहसास है कि उसकी आत्मा साथ रही, तो वह दो पल भी नहीं ठहर पाएगीं अपनी बहु सीमा के पास| बहु के पास रहने के लिय उसे अपनी आत्मा को अपनी कुटीया में ही छोड़ना होगा ….| आंसुओ को दिल के कोने में दफन कर स्वार्थी बेटे के साथ अगली सुबह शहर चल देती है |..सविता मिश्रा

*सविता मिश्रा

श्रीमती हीरा देवी और पिता श्री शेषमणि तिवारी की चार बेटो में अकेली बिटिया हैं हम | पिता की पुलिस की नौकरी के कारन बंजारों की तरह भटकना पड़ा | अंत में इलाहाबाद में स्थायी निवास बना | अब वर्तमान में आगरा में अपना पड़ाव हैं क्योकि पति देवेन्द्र नाथ मिश्र भी उसी विभाग से सम्बध्द हैं | हम साधारण गृहणी हैं जो मन में भाव घुमड़ते है उन्हें कलम बद्द्ध कर लेते है| क्योकि वह विचार जब तक बोले, लिखे ना दिमाग में उथलपुथल मचाते रहते हैं | बस कह लीजिये लिखना हमारा शौक है| जहाँ तक याद है कक्षा ६-७ से लिखना आरम्भ हुआ ...पर शादी के बाद पति के कहने पर सारे ढूढ कर एक डायरी में लिखे | बीच में दस साल लगभग लिखना छोड़ भी दिए थे क्योकि बच्चे और पति में ही समय खो सा गया था | पहली कविता पति जहाँ नौकरी करते थे वहीं की पत्रिका में छपी| छपने पर लगा सच में कलम चलती है तो थोड़ा और लिखने के प्रति सचेत हो गये थे| दूबारा लेखनी पकड़ने में सबसे बड़ा योगदान फेसबुक का हैं| फिर यहाँ कई पत्रिका -बेब पत्रिका अंजुम, करुणावती, युवा सुघोष, इण्डिया हेल्पलाइन, मनमीत, रचनाकार और अवधि समाचार में छपा....|

6 thoughts on ““हार”

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कहानी बहिन् जी, आज के बच्चे माँ-बाप को केवल मतलब के समय याद करते हैं.

    • सविता मिश्रा

      सादर नमस्ते विजय भैया …आभार भैया

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    सविता जी , कहानी में दर्द है . कियों ऐसा हो जाता है ? कियों एक औरत समझ नहीं पाती कि उस ने भी एक दिन ब्रिध्वस्था में होना है . सभी ऐसे नहीं होते , जो होते हैं उन से ही नफरत होने लगती है . भगवान् का शुकर है कि हम किस्मत वाले हैं वर्ना हम ने लोग देखे हैं जिन के बूड़े माँ या बाप अकेले रहते हैं . कोशिश करते हैं ऐसे लोगों की मदद के लिए . मेरी पत्नी ऐसे लोगों की बहुत मदद करती है , इस से जो पुन्य उनके बचों को मिलना था भगवान् हमें दे रहा है .

    • सविता मिश्रा

      सादर नमस्ते भैया …आभार भैया दिल से
      भैया आपने यह क्यों नहीं कहा कि एक माँ अपने ही बेटे को क्यों नहीं समझ पायी| एक दूजे को नहीं समझ पाया इसके पीछे भी कई कारण होते है इसमें बस नारी ही दोषी क्यों

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    एक औरत
    दूसरी औरत को समझने में चूक क्यों जाती है
    मुझे लगता है बीच की कड़ी ही कमजोर होती है

    • सविता मिश्रा

      सादर नमस्ते दी …आभार दीदी दिल से
      आपने सही कहा कि बीच की कड़ी ही कमजोर होती है|
      एक दूजे को नहीं समझ पायी
      इसके पीछे भी कई कारण होते है दी इसमें बस नारी ही दोषी क्यों| दोष नारी का नहीं दी किसी काम का बोझ कौन उठाना चाहता है आप ही बताये …और यह कहावत तो हैं ही कि “दाई की परैईया माई आगे रक्खी बा”

Comments are closed.