उपन्यास : शान्तिदूत (इकतालीसवीं कड़ी)
राजसभा में सर्वत्र मौन छाया था। भीष्म और द्रोण तक का तिरस्कार करने वाले युवराज दुर्योधन के सामने फिर किसी ने बोलने का साहस नहीं किया। लेकिन कृष्ण को ऐसा कोई डर नहीं था। इसलिए उन्होंने दुर्योधन को धिक्कारते हुए कहा- ‘युवराज, आपके विषय में मैं यही कह सकता हूँ कि विनाश काले विपरीत बुद्धिः। अहंकार और ईर्ष्या ने आपके विवेक पर पर्दा डाल रखा है, इसलिए आपको अपने हित की बातें सुनायी नहीं दे रही हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि आपके इस हठ का क्या परिणाम होगा?’
दुर्योधन के पास उत्तर तैयार था- ‘कोई भी परिणाम हो, वासुदेव! मैं इन्द्रप्रस्थ किसी को नहीं दूंगा।’
‘युवराज, भगवान वेदव्यास ने इस युद्ध में होने वाले संभावित विनाश का जो चित्र खींचा है, क्या आपने उस पर एक भी दृष्टि डाली है? आप यह क्यों नहीं सोचते कि आपके इस हठ के कारण कुरुवंश ही नहीं, सम्पूर्ण भारतवर्ष के श्रेष्ठ योद्धा नष्ट हो जायेंगे, समाज में बहुत सी बुराइयां फैल जायेंगी और जल-थल-वायुमंडल तक प्रदूषित हो जाएगा? इस युद्ध से बचिए युवराज, इससे किसी का कोई लाभ नहीं है, केवल विनाश और विनाश ही होगा।’
‘चाहे कुछ भी हो, वासुदेव! मैं पांडवों के साथ कोई समझौता नहीं कर सकता। जाकर उनसे कह दो कि मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ। अब निर्णय युद्ध क्षेत्र में ही होगा।’
‘आप युद्ध के लिए तैयार हैं! क्या आप अपनी और अपने भाइयों की मृत्यु के लिए भी तैयार हैं?’
‘क्या कह रहे हो, केशव? मृत्यु के लिए तो पांडवों को तैयार रहना चाहिए। जाकर उनसे कह दीजिए कि यदि वे वीरवर कर्ण के वाणों से अपने प्राण बचाना चाहते हैं, तो पुनः जंगल में लौट जायें और इन्द्रप्रस्थ का सपना देखना छोड़ दें।’
‘इतना अहंकार उचित नहीं युवराज! क्या आपने महाबली भीम की वे प्रतिज्ञायें नहीं सुनीं, जो उन्होंने राजसभा में द्रोपदी का चीरहरण होते समय की थीं? उन्होंने आपकी दोनों जांघें तोड़ने और दुःशासन का रक्त पीने की प्रतिज्ञा की थीं। पांचाली ने भी दुःशासन के रक्त से अपने केश धोने की प्रतिज्ञा की है। वे प्रतिज्ञायें आज भी अधूरी हैं।’
जैसे ही कृष्ण ने राजसभा को पांडवों की इन प्रतिज्ञाओं का स्मरण दिलाया, वैसे ही वे सभी भय से सिहर उठे। धृतराष्ट्र का चेहरा भय के कारण पीला पड़ गया। परन्तु दुर्योधन पर इसका प्रभाव पूरी तरह विपरीत हुआ। वह जोर से हँसते हुए बोला-
‘हा….हा…हा…. ऐसी निरर्थक प्रतिज्ञाओं का मैं कोई मूल्य नहीं समझता, वासुदेव। उनके साथ उनकी प्रतिज्ञायें भी भस्म हो जायेंगी।’ दुर्योधन का अट्टहास राजसभा में गूँज उठा।
‘इस भ्रम में मत रहिये युवराज! यदि युद्ध हुआ तो वे प्रतिज्ञायें अवश्य पूरी की जायेंगी। इनसे बचने का एक ही मार्ग है कि आप पांडवों को उनका इन्द्रप्रस्थ लौटा दें। मैंने उनको इस बात के लिए सहमत कर लिया है कि यदि आप उनको शान्तिपूर्वक इन्द्रप्रस्थ लौटा देते हैं, तो वे आपको क्षमा करके उन सभी प्रतिज्ञाओं को भूलने के लिए तैयार हैं।’
कृष्ण की यह बात सुनकर दुर्योधन क्रोध करते हुए बोला- ‘बस बहुत हो चुका, कृष्ण! आप हमसे क्षमा मांगने की आशा कर रहे हैं। क्षमा तो उनको हमसे मांगनी चाहिए कि उन्होंने हस्तिनापुर के साम्राज्य के विरुद्ध युद्ध की धमकी दी है। इस अपराध के लिए उनको दंड दिया जाएगा। उन कायरों से कहिये कि इन्द्रप्रस्थ पाने का सपना देखना छोड़ दें और महाराज से क्षमा मांगकर वन में लौट जायें। यदि उनमें साहस है, तो युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर कुरुक्षेत्र में आ जायें।’
‘आप अपने विवेक से काम नहीं ले रहे हैं, युवराज! आप नहीं समझ रहे हैं कि आपके इस हठ के कारण सम्पूर्ण कुरुवंश और हस्तिनापुर विनाश के मुंह में जाने वाला है। मैं इस विनाश को बचाने का प्रस्ताव लेकर आया हूँ, पर आप उस पर विचार नहीं कर रहे हैं और युद्ध का हठ ठाने हुए हैं।’
दुर्योधन ने फिर यही कहा- ‘मुझे आपका प्रस्ताव किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं है, वासुदेव!’
कृष्ण ने कुछ सोचकर फिर महाराज धृतराष्ट्र की ओर मुख किया और बोले- ‘महाराज, पितामह और समस्त राजसभा मेरी बात ध्यानपूर्वक सुनें। मैं यहाँ पांडवों का प्रतिनिधि बनकर आया हूँ। उन्होंने मुझे यह अधिकार दिया है कि मैं उनकी ओर से कोई भी प्रस्ताव आपके सामने रख सकता हूँ, जो उनको पूर्णतः स्वीकार होगा। अपने इस अधिकार का उपयोग करते हुए मैं पांडवों की ओर से यह न्यूनतम मांग रखता हूँ कि आप उनको इन्द्रप्रस्थ के बदले में केवल पांच गांव दे दें। वे उनसे ही संतुष्ट हो जायेंगे और समस्त वैरभाव को भुलाकर हस्तिनापुर के साथ प्रेमपूर्वक रहेंगे।’
कृष्ण की ओर से यह साधारण और न्यूनतम मांग आने पर सभी कौरव हर्ष से उछल पड़े। धृतराष्ट्र के मुख पर जो चिन्ता के बादल छाये हुए थे उनकी जगह प्रसन्नता की झलक दिखायी देने लगी। यही हाल भीष्म, द्रोण, विदुर तथा अन्य सुधीजनों का हुआ। भीष्म ने उठकर कहा- ‘धन्य हो केशव, इस प्रस्ताव को स्वीकार करने में हमें कोई कठिनाई नहीं होगी। हमें यह प्रस्ताव स्वीकार कर लेना चाहिए, महाराज!’
द्रोण ने भी उठकर कहा- ‘वासुदेव, आपने शान्ति का जो मार्ग दिखाया है, वह आपके ही योग्य है। इस प्रस्ताव में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। मैं इसको स्वीकार करने की राय देता हूँ।’
विदुर ने भी कहा- ‘महाराज, इस प्रस्ताव को तत्काल स्वीकार कर लीजिए। इससे अच्छा और कोई प्रस्ताव नहीं हो सकता।’
इन सबकी राय को सुनकर धृतराष्ट्र ने कह दिया- ‘यह प्रस्ताव बहुत श्रेष्ठ है, पुत्र। इसे तत्काल स्वीकार कर लो और केशव के प्रति आभार व्यक्त करो।’
लेकिन सबकी आशाओं पर तुषारापात करते हुए दुर्योधन ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया- ‘वासुदेव, पांच गांव तो क्या, मैं युद्ध के बिना सुई की नोंक के बराबर भूमि भी पांडवों को नहीं दूंगा।’
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
विजय भाई , सब से पहले तो मैं आप के लिखने के खूबसूरत अंदाज़ के लिए वधाई देता हूँ . दुसरे इस उप्निआस का नाम भी शान्ति दूत रख कर इस कहानी को चार चाँद लगा दिए . अब बात है राज सभा में हुए वार्तालाप की , कृष्ण ने एक अछे राजदूत की भूमिका निभाई , हर तरह की कोशिश की कि यह कृक्षेतर में खून की होली ना खेली जाए . ऋषि वेद्विआस की भविष्वाणी का भी ज़िकर किया , यहाँ तक कि सिर्फ पांच गाँव देने को भी कहा जिस से पांडव अपनी प्रिग्तिआओन को भी भूल जायेंगे लेकिन दुर्योधन का यह कहना कि मैं सुई के नक्के के बराबर भी जगह देने के लिए तैयार नहीं हूँ ,ज़ाहिर करता है कि उस की बुधि भृष्ट हो चुक्की थी और यह होना ही था . अगर दुर्योधन मान जाता तो वेद्विआस की भविष्वाणी का किया होता ? इस से यह ही बात आती है कि कृष्ण को तो पता ही था कि यह लड़ाई हो कर रहेगी लेकिन उस ने अपने आप को और पांडवों को किसी भी दोष से मुक्त होना था .
सत्य कहा. भाई साहब आपने. कृष्ण ने युद्ध को रोकने और शान्ति स्थापित करने के लिए जो प्रयास किया था, वह अपने आप में अद्वितीय था. परन्तु बुद्धिहीन दुर्योधन उस साधारण सी मांग को भी नहीं मान सका. देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा यह. जब मूर्ख लोगों के हाथ में सत्ता आ जाती है, तो देश और समाज को इसी प्रकार पीड़ित होना पड़ता है.
टिप्पणी के लिए आपका आभार.