गज़ल : ये कैसा परिवार हुआ
मेरे जिस टुकड़े को दो पल की दूरी बहुत सताती थी
जीवन के चौथेपन में अब, वह सात समन्दर पार हुआ
रिश्ते नाते -प्यार की बातें , इनकी परवाह कौन करे
सब कुछ पैसा ले डूबा, अब जाने क्या व्यवहार हुआ
दिल में दर्द नहीं उठता है भूख गरीबी की बातों से
धर्म देखिये कर्म देखिये, सब कुछ तो व्यापार हुआ
मेरे प्यारे गुलशन को न जाने किसकी नजर लगी है
युवा को अब काम नहीं है बचपन अब बीमार हुआ
जाने कैसे ट्रेन्ड हो गए, मम्मी पापा फ्रैंड हो गए
शर्म हया और लाज ना जाने आज कहाँ दो चार हुआ
ताई ताऊ , दादा दादी ,मौसा मौसी दूर हुए
अब हम दो और हमारे दो का ये कैसा परिवार हुआ
ग़ज़ल : मदन मोहन सक्सेना
मदन मोहन जी , इस ग़ज़ल में एक दर्द छिपा है लेकिन ज़माने के साथ साथ हो लेना ही भलाई है . मेरे एक दोस्त की वाइफ है जिस का काम ही ऐसा है हर हफ्ते एक नई कंट्री को जाना होता है . बस हर वक्त एरोप्लेन में ही रहती है . समय बहुत तेज़ी से जा रहा है . यहाँ तो अब पेरेंट्स शादी होते ही बच्चों को कह देते हैं कि भाई अपना घर लो , वैसे तो कहने की जरुरत ही नहीं किओंकि वो शादी से पहले ही बैंक से लों लेकर घर खरीद लेते हैं . जब हम जवान थे तो तब बजुर्ग लोग अक्सर बातें किया करते थे , लो जी , ज़माना खराब हो गिया है , आज के बच्चे सिनिमा देख देख कर बिगुड रहे हैं . पहले पहले जब लड़किओं ने बाइसिकल चलाना शुरू किया तो बहुत शोर मचा था , यह मुझे अभी तक याद है , अब लद्किआन कारें चलाती हैं और हवाई जहाज़ भी चलाने लगीं हैं . मेरा विचार है ज़माने के साथ ही चलने में भलाई है .
सही कहा, भाई साहब.महिलाओं को हर क्षेत्र में बढ़ना चाहिए, लेकिन अपनी मर्यादा भी नहीं छोडनी चाहिए. यह भी आवश्यक है.
बहुत अच्छी ग़ज़ल, मदन मोहन जी. आपने हम सबकी भावनाओं को प्रकट किया है. अधिकांश के बच्चे दूर दूर रहकर नौकरी करते हैं.