उपन्यास : शान्तिदूत (तिरेपनवीं और अंतिम कड़ी)
जब कृष्ण का रथ उपप्लव्य नगर पहुंचा, तो युधिष्ठिर ने उनका स्वागत किया. वे उत्सुकता से कृष्ण के मुख की ओर देख रहे थे. परन्तु कृष्ण ने मुखमंडल पर किसी सफलता का कोई चिह्न नहीं था. वे उदास भी नहीं लग रहे थे, स्वाभाविक और स्थायी मुस्कराहट सदा की तरह उनके मुख पर खेल रही थी. शिविर में पहुंचकर युधिष्ठिर ने वह प्रश्न पूछ ही लिया, जिसको वे बड़ी देर से रोके हुए थे- ‘भगवन ! हस्तिनापुर में क्या हुआ? क्या दुर्योधन ने शान्ति प्रस्ताव स्वीकार कर लिया?’
कृष्ण हंस पड़े. बोले- ‘उसकी आशा मुझे प्रारंभ से ही नहीं थी, भ्राता श्री! वह युद्ध के लिए पागल हो रहा है. मेरे किसी प्रस्ताव पर उसने विचार तक नहीं किया, जबकि अन्य सभी वरिष्ठ जन उस पर सहमत थे.’
‘क्या आपने कोई नया प्रस्ताव भी रखा था, वासुदेव?’ युधिष्ठिर ने जिज्ञासा की.
‘हाँ, महाराज ! मैंने उनसे इन्द्रप्रस्थ के बदले में आपको केवल पांच गाँव देने का प्रस्ताव रख दिया था, लेकिन यह न्यूनतम प्रस्ताव भी दुर्योधन को स्वीकार नहीं हुआ. उसने स्पष्ट कह दिया कि बिना युद्ध के मैं सुई की नोंक के बराबर भूमि भी पांडवों को नहीं दूंगा.’
यह सुनकर सारे पांडव रोष में भर गए. पहली बार भीम बोले- ‘अगर वह युद्ध ही चाहता है, तो हम भी तैयार हैं.’
भीम की बात सुनकर अर्जुन भी बोल पड़े- ‘अच्छा ही हुआ कि उसने शान्ति प्रस्ताव नहीं माना. अब रणक्षेत्र में वह देखेगा कि अर्जुन क्या कर सकता है.’
लेकिन युधिष्ठिर की चिंता दूसरी थी. वे बोले- ‘भगवन्, दुर्योधन ने आपको हानि पहुंचाने की चेष्टा तो नहीं की?’
कृष्ण हंस पड़े. ‘उसने मुझे बंदी बनाने का विचार किया था, भ्राताश्री, परन्तु मेरी एक ही धमकी पर वे ठंडे पड़ गए.’
महाराज युधिष्ठिर ने राहत की सांस ली. कहा- ‘उसके सिर पर विनाश नाच रहा है, वासुदेव !’
‘मुझे खेद है कि मैं अपने प्रयास में असफल रहा. इससे पहले मुझे कभी भी असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ा था. फिर भी मुझे संतोष है कि मैंने शान्ति स्थापना का पूरा प्रयास किया. अब जो भी भविष्य के गर्भ में है वह होगा और सामने आएगा.’
अब युधिष्ठिर ने अंतिम प्रश्न पूछा- ‘हमारी माताश्री कुशल तो हैं? उन्होंने हमारे लिए क्या आदेश दिया है, भगवन ?’
‘बुआ पूरी तरह कुशल हैं. उन्होंने आप सभी को अपने आशीर्वाद भेजे हैं और कहा है कि क्षत्राणी जिस दिन के लिए पुत्रों को जन्म देती है, वह दिन आ पहुंचा है. आप सभी पूरे मन से युद्ध करें और आततायियों का वध करें, भले ही वे आपके सगे सम्बन्धी क्यों न हों.’
‘हमें माताश्री का आदेश स्वीकार है, वासुदेव! ऐसा ही होगा.’ युधिष्ठिर ने कहा. अन्य सभी पांडवों ने उनकी सहमति में सिर हिलाया.
‘अब युद्ध की तैयारी कीजिये, महाराज! युद्ध की तिथि तय करके कल ही अपनी सेनाओं को कुरुक्षेत्र के लिए प्रस्थान करने का आदेश दीजिये.’
‘जो आज्ञा, भगवन् ! ‘
(समाप्त)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
अब तो सब बातें साफ़ हो गईं थी , युद्ध के बगैर चारा भी किया रह गिया था . कैरव पांडव का युद्ध तो अब निश्चित ही था लेकिन कृष्ण के दिमाग में किया किया विचार आ रहे थे , इस का अंदाजा भी लगाया जा सकता है किओंकि उन्हें विनाश ही नज़र आ रहा होगा .
युद्ध में भयंकर विनाश होता है यह सब जानते हैं. इसी से बचने के लिए ही कृष्ण ने शान्ति का प्रयास किया था, परन्तु दुर्योधन के हठ के कारण वे असफल रहे.
यही बात इंडिया पाकिस्तान पर लागू होती है , इंडिया शान्ति का रास्ता अपनाए हुए हैं लेकिन पाकिस्तान दुर्योधन का रोल अदा कर रहा है , किया एक और महांभारत होगा ?
बिलकुल संभव है, भाई साहब !