लघुकथा

चेहरे की लकीर

दीपावली को अब चार ही दिन बाकी रह गये थे। पिंकू को आज उसके दादा जी अपने साथ बाजार ले गये थे। पूरा बाजार त्योहारी सीजन के कारण सजा हुआ था। जूते,कपड़े,पटाखे और तरह- तरह के पकवान और भी बहुत कुछ था। पर पिंकू को कुछ भी लेने का मन नही हुआ। दादा जी बराबर बोल रहे थे। ‘पिंकू बेटा कुछ अपने लिए खरीद लो, पर वो टालता रहा बोला “सब कुछ तो है मेरे पास फिर क्यूँ बेकार में कुछ खरीद कर पैसा बर्बाद करूँ। तभी उसकी नजर मिटटी के दीपक बेचने वाले एक वृद्ध जन पर पड़ी। और वो जोर से बोल दादा जी मुझे कुछ खरीदना है आईये मेरे साथ उस दुकान पर और वो दादा जी को वहाँ ले गया। दादा जी ने पूछा ये खरीदना है तुझे! हाँ दादा जी कह कर वो दीपक वाले से दीपक लेने लगा। दादा जी पिंकू की बाल वय में ये सोच देख कर अत्यंत प्रसन्न हुए। जब पिंकू ने दीपक वाले से दीपक खरीद कर पैसे दिए तो देखा उनके चेहरे पर राहत की लकीर थी।
शान्ति पुरोहित

शान्ति पुरोहित

निज आनंद के लिए लिखती हूँ जो भी शब्द गढ़ लेती हूँ कागज पर उतार कर आपके समक्ष रख देती हूँ

4 thoughts on “चेहरे की लकीर

  • जिस बच्चे के संस्कार ऐसे हैं वोह जिंदगी भर अछे कर्म करेगा , यही तो अछे बच्चों की निशानी है .

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघुकथा. यदि ऐसे संस्कार बचपन में ही डाले जाएँ,तो जीवन भर मार्गदर्शन करते हैं और भटकने नही देते.

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