द्रोपदी का चीर…
द्रोपदी का चीर हर बार अब तार तार होता है
दुशासन बैठे गली गली में दुर्योधन हर द्वार होता है
धृतराष्ट्र की आँखें देख सकती हैं पर रोक नहीं सकती
चुपचाप पितामहों के बीच यही दुराचार होता है
गांधारी की पट्टी के पीछे दुर्योधन को आशीष हैं
कुंती के मन में प्रश्न आज भी कुछ शेष हैं
कर्ण हैं कई पर भीम सी प्रतिज्ञा कोई लेता नहीं
धर्म भी साथ अब देखो अबला का देता नहीं
तड़पती रह जाती है आत्मा बिलखती रहती है
हृदय की ज्वाला भी बस सुलगती रहती है
हर दिन हर रात की पीड़ा का चीत्कार होता है
द्रोपदी का चीर हर बार अब तार तार होता है !!
अर्जुन का गांडीव बस अब रह गया टंकार का
युद्धिष्ठिर के माथे फूटेगा घडा ये भी हार का
चरमराते शासन में बस दुशासन सक्रिय है
द्रोण को भी बस अपना अश्वत्थामा ही प्रिय है
विदुर भी चुपचाप केवल एक कोने पर खड़े हैं
जो आवाज उठाते थे उनके सर उखड़े पड़े हैं
कृष्ण तुम आते नहीं ना शरद पूनम रात को
लाज भी बचाते नहीं, देखते कुठाराघात को
अब सभा नहीं बीच गली में बलात्कार होता है
द्रोपदी का चीर हर बार अब तार तार होता है!!
_________________सौरभ कुमार दुबे
अच्छी कविता. आज के संधर्भ में पुरानी बात को प्रस्तुत करना प्रशंसनीय है.
बहुत अच्छी कविता जो आज की सच्चाई ज़ाहिर करती है .