महा ध्यान
कांच की दीवार को फांद
पहुच गयी थी मैं उस पार
मैं थी नदी की सतह पर बैठी
ऊपर तट पर था एक मंदिर
नदी के भीतर जल रही थी एक ज्योति
मैंने पूछा था स-आश्चर्य
कैसे जल रही ज्योति जल में
बताया शून्य ने यही तो हैं
ईश्वर की शक्ति अपार
जो मानव करेंगे मुझसे असीम प्रेम
उन्ही को दिखेगी यह प्रेम ज्योति हो साकार
बैठे थे सिंहासन पर
पार्वती और शंकर भगवान्
उनके मुख से आया था मेरी ओर तेज प्रकाश
देख उनका चमकता मनमोहक रूप
मेरे मन में छाया था उल्लास
मां के गेसू थे बिखरे हुए
शंकर जी की फैली हुई जटा से
तभी बहने लगी गंगा की धार
पास आकर बैठ गए थे नागराज
माँ गंगा धर रूप देवी का
हुई थी प्रगट
इस मनोरम दृश्य को
निहार रही थी
मैं कर चित्त एकाग्र
तभी पुन: माता पार्वती आयी
सिहासन के पास करके सोलह श्रृंगार
शिव जी बोले अरे तुम
क्यों संवार आयी अपने गेसू
लग रही थी मुझे
उसी रूप में तुम मनोरम
पूजा हुई थी आरम्भ
सुनाकर शंखनाद
दीप जले थे तब मानो हजार
मुझे हुई बहुत प्रसन्नता
मैंने भी खुशी में खोल दिए अपने गेसू के बंधन
और बैठ गई सम्मुख उनके
करने ध्यान में एक और महा ध्यान
#बरखा ज्ञानी
raat samadhi me liin hone par subah fir dhyan me ve hi drishy dubara pragat ho zate hai ..jinhe barakha gyani ji copy me kabhi kabhi likh leti hai ……atyant alaukik bhav . unhe naman ..
यह कविता ध्यान की उच्चतम सीमा का वर्णन करती है. हम सबकी पहुँच वहां तक होना बहुत कठिन है.