कविता

कौड़ी के मोल

कौड़ी के मोल में बिक गयीं

आधुनिक घर की अनुपयोगी चीजें

जिनसे जुडी थी अनगिनत यादें ।

वो पुरानी साइकिल ।

स्मरण है

एक साइकिल और हम तीन भाई

चलाने को होती थी खूब लड़ाई ।

फिर

बारी-बारी हांकते साइकिल का पैंडल ।

वो पुरानी टीवी ।

टीवी कम रोगी ज्यादा

हर हफ्ते इलाज को आते मैकेनिक ।

 

वो एंटेना ।

जरा सी बारिश

और दौड़ पड़ते हम

उसे हिलाने-डुलाने छत पर ।

 

टॉर्च,

तीन बैंड का रेडिओ

लालटेन, फाउंटेन पेन

पुरानी सन्दूकेँ ।

न जाने कितनी यादगार चीजें

आधुनिकता के साथ अनुपयोगी हो गयीं

और

कबाड़ी के हाथ बिकने को मजबूर ।

अनायास सोचने लगा

जब कोई बिसात नहीं इंसान की

तो

ये महज हैं सामान

वो भी बेजुबान।

मुकेश कुमार सिन्हा, गया

रचनाकार- मुकेश कुमार सिन्हा पिता- स्व. रविनेश कुमार वर्मा माता- श्रीमती शशि प्रभा जन्म तिथि- 15-11-1984 शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (जीव विज्ञान) आवास- सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर, गया (बिहार) चालित वार्ता- 09304632536 मानव के हृदय में हमेशा कुछ अकुलाहट होती रहती है. कुछ ग्रहण करने, कुछ विसर्जित करने और कुछ में संपृक्त हो जाने की चाह हर व्यक्ति के अंत कारण में रहती है. यह मानव की नैसर्गिक प्रवृति है. कोई इससे अछूता नहीं है. फिर जो कवि हृदय है, उसकी अकुलाहट बड़ी मार्मिक होती है. भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्याकुल रहती है. व्यक्ति को चैन से रहने नहीं देती, वह बेचैन हो जाती है और यही बेचैनी उसकी कविता का उत्स है. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरा हूँ. जब वक़्त मिला, लिखा. इसके लिए अलग से कोई वक़्त नहीं निकला हूँ, काव्य सृजन इसी का हिस्सा है.

2 thoughts on “कौड़ी के मोल

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बिलकुल सही , इंसान है ही किया , कबाड़ में भेजे गए सामान की कुछ वर्षों बाद एन्टीक बन कर कीमत कुछ बड सकती है लेकिन इंसान का तो कुछ नहीं बचता .

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतरीन कविता. जमीन से जुड़ी बातें.

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