नवतपा
मृगतृष्णा की नदी
बह रही हैं
पिघली हुई सी
सड़के गयी हैं बहकअमराई से आ रही हैं
पके हुऐ आमों की महक
कोयल की कूक से
गूंज उठता हैं
दोपहर का एकाँत अचानक
बरखा के इंतज़ार में
एकाकी जंगल
मील के पत्थरों सा
गया हैं ठीठक
सूखी पत्तियों की नसों में
जेठ की आंच
रही है धीरे धीरे सुलग
यादों के शहर में
भींगे हुए बादलों सी
दिखाई दे जाती हैं
तुम्हारी
उड़ती हुई एक झलक
मन मसोस कर रह जाता हूँ
कहाँ पाता हूँ तुम्हारे
सतरँगी आँचल के छोर को
मैं पकड़
मृगतृष्णा की नदी
बह रही हैं
पिघली हुई सी
सड़के गयी हैं बहक
किशोर
बढ़िया !
shukriya vijay ji
बहुत अच्छी रचना
shukriya shanti purohit ji