हरी हरी पत्तियां पीले पीले फूल
बांहों में उग आये
काँटों से
दुखी: न हो बबूल
पवन कहें तुमसे
संग मेरे झूम
नदिया कहें
झुलसी टहनियों से
परछाई बन
मेरी शीतल काया कों चूम
महा एकांत के वन के
मौन कों सुन
कराहती हुई पगडंडी के
थके नहीं पाँव
चलती ही चली जाए
इस गाँव से उस गाँव
मानो उसकी अपनी हो
अंतर्लीन कोई धून
मुझसे अभिन्न हो मनुज तुम
कमल पात पर
उछलती -लुढ़कती
यह बात कहें
शबनम की चैतन्य एक बूंद
हरी हरी पत्तियां पीले पीले फूल
kishor kumar khorendra
बहुत सुन्दर कविता.
shukriya vijay ji