विस्तृत वन
विस्तृत वन
मे
पथ के
बहके हुए है कदम
चुपचाप बह रहे है
निर्जन के क्षण
झर रहे है
मौन -के शब्द
पीले भूरे
वृक्षों के पत्तो के संग
बह रहा समीर मंद
स्थिर लग रहे दृश्य
ठिठकी हुई सी हैं
परछाईयाँ सब
बाहों मे धुप के
छाया की नर्म देह भी
आलिंगन के आंच से
हो गयी है गरम
स्रोत का मोह त्याग
पहाड़ से उतरकर
प्रेम मे डूबी
सागर की तरफ़ जा रही
नदिया कह रही
मुझसे—-
आओ पास मेरे
छंद सृजन के लिए
यही है शुभ अवसर
मुझमे डूबकर
उतार लो
मढ़े मुखौटे की तरह
सारे आडम्बर
मेरा जल …
स्वच्छ
मीठा
पवित्र
और दर्पण सा
हैं …निरमल
kishor kumar khorendra
वाह वाह !
dhanyvad vijay ji
बहुत अच्छी कविता .
aabhar gurmel ji