पृथ्वी को उठाकर
-पृथ्वी को उठाकर
१-मेरी पत्नी
बर्तन
फ़िर फर्नीचर
या पूरे घर को
उठा कर
रोज रखती है
सही जगह पर
चांवल वह
ठीक पकते समय
गीला होने से पहले उतार लेती है
वह जानती है
मै इस समय
अख़बार पढ़ रहा होउंगा
धुप सीडियां ….
कब चढ़ती है
और सीढ़ियाँ …?
बरसात से फिसलती कब है
इतनासब वह जानती है
रद्धी का भाव –
पुराने कपड़ो के बदले
नये गिलास कितने मिलेंगे
मेरा उतरा हुआ -चेहरा
या
इन्द्रधनुष से छूटने को आतूर –
मेरी आँखों के तीर
बच्चो की नींद
घड़ी की तरह
वह भी नही थकती
वह समय से आगे है
सूरज की परीक्रमा
वो भी कर रही है
एक माँ
एक पत्नी
बेटी , बहू
बनकरउसे इतना व्यस्त देखकर
कभी -कभी
मुझे लगता है
घर को भर देने वाली उसकी
यह ममता-
आँगन मे छितर-आये
पौधों की शाखाओं की तरह -फैल कर
किसी
एक दिन-
पृथ्वी को उठाकर
तरबूज की तरह
अपने घर की
छत पर न
रख दे
— किशोर कुमार खोरेन्द्र
कविता अच्छी लगी .
वाह वाह !