प्राचीन मंदिर में
धरती के इस
बहुत प्राचीन
मन्दिर के भीतर
जर्जर हो चुके अंधेरो मे
उतरकर
सीढ़ियाँ
गर्भालय में
उजालो की हो ,कहीं पर
कुछ बूंदें पड़ी
यह खोजता हूँ मैं
श्लोकों की अनुगूँज
अमृत सी सहेजी
भरी पड़ी हो
किसी स्वर्ण -कुम्भ में
यह खोजता हूँ मै
शुभ आशीर्वादों को
जिसके हाथो ने दिए
उस भगवान के
बिखरे…..
भग्न -अवशेषों में
प्राण खोजता हूँ मैं
लौट कर गए
पद -चिह्नों में
लोगो की श्रद्धा के
ठहरे हुए
आभार
खोजता हूँ मैं
छूते है
मूर्तियों के हाथ
उन हाथो
की उंगलियों में
सबकी पूजा में
समर्पित
अटके
अश्रु से भरे नयन
खोजता हूँ मैं
वह
देह रहित
अजन्मी
शाश्वत
मगर
इन्तजार में मेरे
ध्यानस्थ
चहुँ ओर
व्याप्त -बाहुपाश
खोजता हूँ मैं
जलते दीपक
की ज्योति की
तप्त -प्रतिछाया
का
चिर -आभास
खोजता हूँ मैं
बहुत प्राचीन ,धरती के
इस
मन्दिर के भीतर
जर्जर हो चुके
अंधेरो मे उतर कर सीढ़ियाँ
गर्भालय मे
उजालो की हो कुछ बूँदें पड़ी
यह खोजता हूँ मैं
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बढ़िया कविता !
वाह किशोर जी , आप ने तो मुझे कुछ समरण करा दिया . मुझे इतिहासक खंडरों को देखने का बहुत शौक था . और जब भी मैं एक एक जगह को धियान से देखता था तो मेरा धियान उस काल में पौहंच जाता था . कैसे लोग होंगे वोह , कितनी रौनक होगी वहां , नाच गाने हो रहे होंगे . कविता ने बहुत कुछ कह दिया .