उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 15)

अध्याय-6: मौजमस्ती के दिन

मिले तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ।
भूले तो यूँ कि गोया कभी आशना न थे।।

इन्टर पास करने के बाद मैं अपनी जिन्दगी के एक चौराहे पर खड़ा था। जब तक आप इन्टर में पढ़ते रहते हैं, तब तक भविष्य की इतनी चिन्ता नहीं होती और प्रायः सोचा करते हैं कि भविष्य के बारे में इन्टर करने के बाद सोचा जायेगा। लेकिन इन्टर करने के बाद आपको निर्णय लेने के लिए बाध्य होना पड़ता है। आप अपनी क्षमताओं ओर अक्षमताओं का अपने हिसाब से विश्लेषण करते हैं और उसके आधार पर अपना रास्ता निश्चित करते हैं। कभी-कभी ऐसा निर्णय लेना बहुत मुश्किल हो जाता है, यहाँ तक कि आप जाने-अनजाने किसी एक रास्ते की ओर धकेल दिये जाते हैं।

मैं भी उस बिन्दु पर पहुँच चुका था। मेरे सामने कई रास्ते खुले हुए थे, लेकिन बढ़ती हुई बेरोजगारी और अपनी सुनने की असमर्थता को देखते हुए मुझे ऐसा निर्णय लेना था, जो मेरे भविष्य को बनाने में समर्थ हो सके। उस बिन्दु पर लिया गया कोई भी गलत निर्णय मेरे भविष्य को घोर अंधकारमय बना सकता था। कई ऐसे क्षण उपस्थित भी हुए, लेकिन मैं ईश्वर को धन्यवाद देना चाहूँगा कि उसने मुझे अंधकार में भटकने से बचा लिया।

मैं अपने भविष्य की संभावनाओं पर पहले भी कई बार विचार कर चुका था और मेरी महत्वाकांक्षा साहित्यकार या कार्टूनिस्ट बनने की थी। लेकिन जब मैंने गहराई से विचार किया तो पाया कि यह व्यवसाय मुझे दिखावटी प्रतिष्ठा तो दे सकता था, लेकिन पेट के लिए पर्याप्त रोटी देने में असमर्थ ही रहता। अतः मैंने तय किया कि मुझे सबसे पहले अपनी आर्थिक निश्चिन्तता का उपाय करना चाहिए। इधर से निश्चिन्त होने पर ही साहित्य के बारे में सोचा जा सकता है। मैं उन दिनों काफी उग्र सरकार विरोधी विचारों का था और देश में इमर्जेन्सी भी लगी हुई थी, अतः मैं किसी भी हालत में सरकारी नौकरी में नही जाना चाहता था। मैं सोचता था कि अपना स्वाभिमान खोकर नौकरी करने से अच्छा है कि मैं मजदूरी करके अपना पेट भरूँ। मैं कपड़े सिलने का अच्छा जानकार था, हालांकि कटिंग करना नहीं जानता था। अतः मेरा निश्चय था कि अगर मैं सब तरह से अच्छी आजीविका प्राप्त करने में असफल हो गया, तो भी मैं कपड़े सिलकर अपने खर्च लायक पर्याप्त धन कमा सकता हूँ।

लेकिन मेरी हार्दिक इच्छा अपना कोई स्वतंत्र व्यवसाय करने की थी। काफी विचार करने के बाद मैंने तय किया था कि मैं पढ़ाई पूरी करने पर कोई छोटा-मोटा कारखाना शुरू करूँगा। मोमबत्ती बनाने से लेकर प्लास्टिक के खिलौने बनाने तक की संभावनाओं पर मैंने विचार कर लिया था। लेकिन कोई कारखाना लगाने के लिए धन के अतिरिक्त मुझे पर्याप्त तकनीकी जानकारी होना आवश्यक था। अतः मेरी इच्छा मैकेनिकल या केमीकल इंजीनियरिंग का कोर्स करने की थी। मैं उस वर्ष आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा में नहीं बैठ सका, क्योंकि मेरा विचार था कि अपनी सुनने की असमर्थता के कारण मुझे इस कोर्स के लिए नहीं चुना जायेगा। कई लड़कों ने कहा भी था कि इसे करने के लिए शारीरिक रूप से स्वस्थ होना आवश्यक है। अतः मैंने आई.आई.टी. जाने का विचार त्याग दिया।

तब मैंने विचार बनाया कि मुझे दयाल बाग के इंजीनियरिंग कालेज में मैकेनिकल इंजीनियरिंग का कोर्स करना चाहिए। लेकिन मुझे आशंका थी कि कानों की वजह से शायद मुझे उसमें प्रवेश नहीं दिया जायेगा। आगे चलकर मेरी आशंका सही निकली। मेरे भाई साहब श्री राममूर्ति सिंघल, जो उन दिनों एम.बी.बी.एस. कर रहे थे, उस कालेज के प्रिसीपल से मिलने गये और उनसे मेरे प्रवेश की संभावनाओं के बारे में पूछा। प्रिंसीपल साहब ने उनसे साफ शब्दों में मना कर दिया। अतः इंजीनियरिंग करने का विचार मुझे छोड़ देना पड़ा।

अब मेरे सामने इसके सिवा और कोई चारा नहीं था कि मैं बी.एससी. में दाखिला लेकर अपनी पढ़ाई जारी रखता और एम.एससी. करने के बाद ही किसी नौकरी आदि की तलाश करना। आगरा में तीन कालेज हैं जहाँ बी.एससी. की पढ़ाई की जाती है। उनमें सबसे बड़ा और पुराना कालेज है आगरा कालेज, जिसने बड़े-बड़े महापुरुष दिये हैं। लेकिन उस समय यह कालेज छात्रों की उच्छृंखलता और अनुशासनहीनता का पर्याय बन गया था, हिंसक वारदातें भी होती रहती थी, अतः मैं इसमें दाखिला लेने का अनिच्छुक था।

एक और काॅलेज था राजा बलबन्त सिंह काॅलेज, लेकिन इसका शिक्षा स्तर अच्छा नहीं माना जाता था, अतः मैं इसमें भी नहीं पढ़ना चाहता था। इस प्रकार मेरे लिए तीसरा कालेज, जिसका नाम है सेंट जाॅह्न्स कालेज, ही उपयुक्त समझा गया, क्योंकि एक तो इसका स्तर भी अच्छा था, दूसरे इसमें अनुशासनहीनता नाम मात्र को भी नहीं थी।

नियत समय पर मैंने अपना फार्म भरकर जमा कर दिया और प्रधानाचार्य जी ने मेरी सुनने की असमर्थता जानते हुए भी मुझे सहर्ष दाखिला दे दिया। उस समय सेंट जाॅह्न्स कालेज के प्रधानाचार्य थे श्री पी.आर. इट्यौरा, जिन्हें लड़के गलती से ‘इटारिया’ कहा करते थे। वे काफी सज्जन सहृदय और अनुशासन प्रिय थे। उनके समय में जहाँ तक मुझे याद है किसी प्रकार की अनुशासनहीनता का मामला पैदा नहीं हुआ था।

इन्टर काॅलेज के एकदम विपरीत इस काॅलेज का वातावरण बहुत उन्मुक्त था। पहले जहाँ हमारी कक्षा में केवल लड़के ही लड़के थे, वहाँ इस कालेज में लड़कियों की भरमार थी। शुरू-शुरू में मैं तथा दूसरे साथी लड़के भी बहुत शर्मीले थे और लड़कियों के सामने बातें करने में झेंपते थे। लेकिन पीठ-पीछे तरह-तरह की टिप्पणियाँ जड़कर अपने मन की भड़ास निकाला करते थे। उस उम्र में इस प्रकार की हरकतें आश्चर्यजनक नहीं हैं, क्योंकि लगभग हर नवयुवक में इस प्रकार की कुंठाएँ होती हैं। लेकिन इससे आप यह न समझें कि मैं ऐसी हरकतों से सहमत था। सत्य तो यह है कि मुझे बहुत बुरा लगता था और मैं स्वयं किसी लड़की पर कोई टिप्पणी आदि नहीं करता था।

बी.एससी. में मैंने गणित, सांख्यिकी और अर्थशास्त्र विषय लिए थे। रसायन विज्ञान से मुझे बहुत अरुचि थी और भौतिक विज्ञान पढ़ना मुझे अनावश्यक लगा क्योंकि मैं गणितज्ञ और अर्थशास्त्री बनना चाहता था। सांख्यिकी इन दोनों विषयों के बीच एक पुल की तरह है, अतः यह मेरा सबसे प्रिय विषय है।

सांख्यिकी में हमारे दो अध्यापक थे। एक थे श्री मुहम्मद असलम अंसारी, जो मेरे श्रेष्ठतम् शिक्षकों में से एक हैं। वे मुझे बहुत प्यार करते थे। मैं तो कहूँगा कि बी.एससी. में मेरी सफलता का एक बड़ा कारण उनका प्यार और प्रोत्साहन रहा है, जिसके अभाव में मैं शायद इण्टर की तरह ही मामूली सफलता प्राप्त कर पाता। वे न केवल एक बहुत अच्छे शिक्षक थे, बल्कि एक सच्चे इंसान भी थे। हमें बहुत से अच्छे अध्यापक मिल सकते हैं, बहुत से अच्छे इंसान भी मिल सकते हैं, लेकिन ऐसे लोग बिरले ही होंगे जिनमें ये दोनों गुण पर्याप्त मात्रा में हों। श्री अंसारी ऐसी ही एक महान विभूति थे, जिनके चरण-स्पर्श करना मैं अपना सौभाग्य समझूँगा।

मैं छुटपुट कविताएँ लिखता रहता था और कभी-कभी अंसारी साहब को भी सुनाया करता था। वे मेरी कविताओं के बहुत प्रशंसक थे और मुझे सदा प्रेरणा दिया करते थे। आज भी जब कभी मैं आगरा जाता हूँ उनसे मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाता। वे अब भी मुझसे उसी स्नेह के साथ मिलते हैं, जैसे पहले मिला करते थे। उनके पढ़ाने का तरीका अपने आप में बेजोड़ था। उन्होंने सांख्यिकी की जो नींव मेरे मस्तिष्क में डाली, वह आज भी इतनी सुदृढ़ है कि बरसों तक बिना किताब खोले भी ज्यादातर सिद्धान्त मुझे याद हैं। अगर मैंने अंसारी साहब से सांख्यिकी न पढ़ी होती, तो नहीं कह सकता कि इस विषय में मेरा ज्ञान कितना होता।

(पादटीप– श्री अंसारी अब अवकाश प्राप्त कर चुके हैं और आगरा में ही रहते हैं. उनका खाता हमारे बैंक की एक शाखा में है. कई बार उस शाखा में मैंने उनके दर्शन किये हैं.)

सांख्यिकी के दूसरे अध्यापक थे श्री चितरंजन प्रसाद शर्मा, जो अस्थायी तौर पर वहाँ आये थे और हमें केवल एक साल पढ़ा सके उसके बाद वे किसी बैंक की नौकरी पर चले गये। वे भी काफी अच्छा पढ़ाते थे और उनका ज्ञान भी अच्छा था, हालांकि अंसारी साहब के सामने वे पासंग भी नहीं थे। बी.एससी. प्रथम वर्ष में जब कभी मैं बहुत निराश महसूस करता था, वे मुझे काफी सहायता देते थे। वैसे लड़कों ने मजाक में उनका नाम ‘पप्पू’ रख दिया था, क्योंकि वे कुछ मोटे थे।

बी.एससी. (द्वितीय वर्ष) में शर्मा जी की जगह आये उनके ही सहपाठी श्री मुकेश चन्द्र सक्सेना, जो न केवल मेरे योग्य शिक्षक थे, बल्कि एक अच्छे मार्ग दर्शक और मित्र भी थे। आज भी वे मेरे अच्छे मित्र हैं और सेंट जाॅह्न्स में ही स्थायी तौर पर अध्यापन कार्य करते हैं। सांख्यिकी में मेरा ज्ञान बढ़ाने में अंसारी साहब के अलावा जिन शिक्षकों ने अपना योगदान किया है, उनमें सक्सेना साहब का नाम सर्वोपरि है। इन्हीं की प्रेरणा से मैंने एम.स्टेट में प्रवेश लिया था, हालांकि मैं पहले बहुत झिझक रहा था।

(पादटीप– श्री मुकेश सक्सेना अब बरेली कालेज बरेली में हैं. शायद अवकाश प्राप्त करने के निकट हैं. लेकिन अभी तक मुझे उनके दर्शन पुनः करने का अवसर नहीं मिला है.)

हम बहुत सौभाग्यशाली थे कि सांख्यिकी का स्टाफ इतना अच्छा था अन्यथा यह विषय ऐसा है कि यदि अच्छा मार्गदर्शन न मिले, तो भटकने में देर नहीं लगती।

हमारे अर्थशास्त्र के अध्यापक भी काफी अच्छा पढ़ाते थे, हालांकि हमारी उनसे घनिष्टता कभी नहीं हो पायी। इसका कारण शायद यह था कि हम बी.एससी. वाले थे, जबकि अर्थशास्त्र के अन्य सभी विद्यार्थी बी.ए. के थे, जिनमें लड़कियों की भरमार थी। हमारे दोनों शिक्षक, सर्वश्री के.पी. जैन तथा बाॅकेबिहारी माहेश्वरी जी हालांकि काफी अच्छा पढ़ाते थे, फिर भी हम सदा बी.ए. के छात्रों खासकर लड़कियों से पिछड़ जाते थे, क्योंकि विज्ञान के विद्यार्थी होने के कारण अर्थशास्त्र जैसी विषय के प्रश्नों के उत्तर विस्तार से और जल्दी-जल्दी नहीं लिख पाते थे। इस काम में ज्यादातर लड़कियाँ बहुत सिद्धहस्त थीं। यही कारण था कि मेरे अंक अर्थशास्त्र में तृतीय श्रेणी के ही रहे, जबकि अर्थशास्त्र में मेरा ज्ञान अपने किसी सहपाठी से कम न कभी था और न अब है।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: jayvijaymail@gmail.com, प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- vijayks@rediffmail.com, vijaysinghal27@gmail.com

6 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 15)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप के साथ साथ मैं भी उन दिनों की सैर कर रहा हूँ . सोचता हूँ कि भागय जिस ओर लेजाना चाहे ले जाता है . मेरे घर में कोई ऐसा नहीं था जो मुझे सही गाइड कर सके . जब मैंने मैट्रिक में फर्स्ट डाविजन हासिल की तो मेरा चांस था ईलैक्त्रिकअल या मकैनिकल इन्ज्नीरिंग के कोर्स में दाखले का . जिस के लिए मैं फ़ार्म भर के दे दिया . जिस दिन हमारी इन्तर्विऊ होनी थे , मैं अपने गाँव से अपने बाइसिकल पर चलना शुरू किया . रास्ते में बारिश होने लगी , और एक घंटा बारिश इतनी हुई चारों तरफ पानी ही पानी था , मुझे वहां रास्ते में रुकने के सिवा कोई चारा न था . जब मैं इन्तर्विऊ के लिए पौंचा तो इन्तर्विऊ हो चुक्की थी . फिर भी मैंने हौसला करके प्रिंसीपल से मुलाक़ात की इजाजत ले ली . मैंने प्रिंसीपल को अपनी मजबूरी बताई . वोह कहने लगे कि सिविल इन्ज्नीरिंग की एक वेकेंसी है , चाहो तो मैं एडमिशन ले लूँ लेकिन पता नहीं कियों मैंने नाह कर दी . बस यही बड़ी गलती मैंने कर दी और आर्ट्स कालिज में दाखिल हो गिया और चार साल वेस्ट कर दिए .

    • विजय कुमार सिंघल

      भाई साहब, सही कहा आपने. कई बार हम जो चाहते हैं, वह नहीं हो पता और जो नहीं चाहते वह हो जाता है. यह सब कुदरत की लीला है. लेकिन मेरा अनुभव है कि अंत में सब ठीक ही होता है.

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, खोरेंद्र जी.

  • Man Mohan Kumar Arya

    विवरण रुचिकर है। पढ़कर अपने स्कूली दिनों की याद ताज़ा हो आई।

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, मनमोहन जी.

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