गजल सुनाती है रात
पांवो मे घुंघरू बाँध कर नाचती है रात
आवारा सड़कों पर ..
बदनाम गलियों में …
रात भर भटकती है रात
आकाश ओढ़ी हुई …धरती की
सोयी …आँखों का सपना बनकर.
जागती है रात
अनपढ़ और जवान लड़कियों को ..
.किस तरह छलता है शहर
देह के बाजार मे …अपना चेहरा तलाशती है रात
प्लेटफार्म पर बैठी हुई नव-वधु सी उंघती है रात …
जंगल के एकांत मे पगडंडियों पर टहलती हुई
कोई कविता गुनगुनाती है रात
बेरोजगार पांवो के इंतजार मे …
दरवाजे पर बैठी हुई माँ की तरह ….
इंतजार करती है रात
मुंह छुपाते हुऐ शहर को एक् बार …
फिर नग्न करने के लिए ..
सूरज के आने का इंतजार करती है रात
किशोर कुमार खोरेन्द्र
रात को एक नए नजरिये से एक कवि ही देख सकता है … उपयुक्त चित्रण!