कैसी विडंबना है ये …
कैसी विडंबना है ये
कहीं तरसते हाथ लरसती आँखें
माँ बाप की गोद पाने को औलाद
और
कहीं जन्म होते ही डाल दिया जाता
कचरे के डिब्बे में या अनाथालय
कैसी विडंबना है ये…
कहीं तरसते अंनाथ माँ बाप के साथ को
और
कहीं अपने ही माँ बाप को छोड़ जाते
वृद्ध आश्रम
कैसी विडंबना है ये…
जीवन भर जलता रहे मानस
द्वेष , ईर्षा, लालच की अग्नि में
और
अंत : चिता पर जलता ही हो जाये
विदा दुनिया से
कैसी विडंबना है ये…
पहले घर कच्चे थे लेकिन रिश्ते पक्के
और
आज घर पक्के रिश्ते कच्चे
कैसी विडंबना है ये
आज …
न प्यार , न एहसास , न रिश्तों
का रहा कोई मोल
बस एक आह , एक ख़ामोशी ,एक सदा
बिन कही… बिन सुनी …बिन देखी
कैसी विडंबना है ये…
कैसी विडंबना है ये जीवन की
जो न जीने दें न आस छोड़ने दें ||
— मीनाक्षी सुकुमारन
तहे दिल से शुक्रिया विजय जी
बहुत अच्छी कविता, मीनाक्षी जी.