मै हूँ एक पथिक ……
मै हूँ एक पथिक
निकल आया हूँ बहुत दूर
कभी किसी गाँव ने ठहराया
छाँव दे गयी कभी अमराई
नदियों ने कहा
प्यास बुझाकर
निहार लो अपनी परछाई
खेतों में खड़े वृक्षों की शाखों ने
अपनी पत्तियों कों हिलाकर
हर मोड़ पर मुझे दी हैं बिदाई
पंछियों ने आगे तक उड़कर
मुझे दुर्गम राह है बतायी
कभी घने जंगल से
हाथ पकड़ कर
शहर तक ले गयी मुझे पुरवाई
पर भीड़ में भी
मैं अकेला ही रहा
अपने ही मन और तन की
इच्छाओं से बेखबर
यही है सच्चाई
सोने के लिये
फुटपात पर
अपनी चटाई बिछाई
सितारों से जगमगाते आकाश ने
मुझ पर अपनी रोशनी लुटाई
समुद्र के किनारे लहरों ने कहा
छोड़ जाओ यही
झाग की तरह ….
अपने अहंकार के बिखरे हुए टुकड़ों कों
बूंद से बूंद आपस में जैसे हैं मिले
वैसे ही सरल ,तरल होने से ही
चेतना जान पाती हैं
अपने भीतर की सच्ची गहराई
kishor kumar khorendra
कविता बहुत अच्छी लगी.
बहुत खूब !
shukriya