संस्मरण

खट्टी-मीठी इमली

मैं जब छोटी थी मुझे इमली, बेर, जामुन खाने का बड़ा शौक था। लेकिन उन्हें खाते ही खांसी हो जाती।गले से ऐसी आवाज निकलती मानो कुत्ता भौंक रहा हो | मुझे खांसता देख पिताजी को बहुत दुःख होता मानो उनकी दुखती रग को किसी ने  दबा दिया हो। वे  साँस के मरीज थे।
हमेशा उनके दिमाग में खौफ की खिचड़ी पकती रहती —कहीं यह रोग किसी बच्चे को विरासत में न दे जाऊँ।

एक रात मुझे बहुत जोरों से खांसी शुरू हो गई ।पिताजी ने इंजेक्शन लगाया और बैनेड्रल  सीरप  पिलाया।तब कहीं जाकर सोई। दूसरी रात फिर खांसी का दौर शुरू हो गया. पिताजी ने शक भरी, पैनी नजरों से मेरी ओर देखा । पूछा —- दिन में कुछ ऊटपटांग खाया क्या !

मैंने तो मुँह भींच लिया पर मेरा छुटका भाई मुन्ना बोल पड़ा — पिताजी, इमली खाई थी–।

उनका गुस्सा तो आसमान तक चढ़ गया —– न जाने क्या -क्या खाते रहते हैं –दुबारा खाँसी  तो निकल दूँगा कमरे से।

मैं भुनभुनाई –चुगलखोर ! कल मजा चखाऊँगी–मुन्ना की ओर जलती आँखों से देखा। लिहाफ सिर तक ढका  और सोने का नाटक करने
लगी कि आई बला टल जाय।

दो तीन दिन तो पिता जी के गुस्से का असर रहा फिर दिमाग चल निकला –लप लप करते  जीभ अलग उछलने लगी—- इमली –इमली के पत्ते –आह कितने खट्टे !बस एक बार —- एक बार मौका मिल जाये –|

एक जलती दोपहरी में पिताजी कूलर की हवा में खर्राटे भर रहे थे । मेरा दिमाग तो –हिरनी की तरह कुलाँचें भरने लगा।दबे पाँव सीढ़ियाँ उतार कर नीचे गई। वहाँ भार्गव फार्मेसी के कर्मचारी काम कर रहे थे। उनकी नजर से बचते हुए किसी तरह मुख्य दरवाजे के भारी भरकम किवाड़ों को पूरी ताकत लगाकर ठेला। फिर तो मैं और भाई  ऐसे भाग निकले—– जैसे चोर सिपाहियों के डर से भागते हैं।

भागते -भागते अमीन -नासिरा मिल गए। रवीन्द्र -राजेंद्र को आवाज लगाई तो –तुरंत हाजिर ।  हमारी छोटी सी टोली हंसती -फुदकती गंगा के किनारे ऊंचे से टीले पर चढ़ गई । तीन -चार इमली के पेड़ —ऊंचे -ऊंचे। हमें देखकर खुश नजर आ रहे थे। तभी हवा का झोका आया , इमलियाँ बरस पडीं —झर–झर—झर——- मैंने खट से एक इमली उठाई ,खट से उसे तोड़ा–अन्दर से एकदम लाल-चमकदार –हो न हो तोते के कुतरने से यह लाल हो गई है ।

–हाँ –उसकी चोंच भी तो लाल है ,उसी का रंग लग गया है  रविन्द्र  बोला।

–बड़ी मीठी है ! मैंने अपनी खाई उसके मुंह में ठूंस दी । रविन्द्र ने एक इमली तोड़ी –वह  हरी निकली ।उसने जीभ से लगाई ही थी कि झटके से दूर फेंक दी –धत तेरे की –महाखट्टी—-एकदम खट्टी — अमीना के हाथ जो  इमलियाँ  हाथ लगीं , दोनों की दोनों लाल | सब उस पर चील की तरह झपट पड़े और मिल -मिलकर खायीं। किसी ने न सोचा -धूल में गिरी इमली गंदी है या एक -दूसरे का झूठा खाना ठीक नहीं–। बस बचपन की खेती लहलहा रही थी।

इमली खाई तो मगर नियत कहाँ भरी- – – ! रात भर पेड़ों से लटकी मोटी -मोटी इमलियाँ सपने में आती रहीं ।  सुबह सोकर उठी । सूर्य की सी लाली चेहरे पर थी – – –  इमली के पेड़ पर पहुँचने की तरकीब जो सूझ गई थी । दोपहर होते ही अपनी टोली के साथ मैं  नूरा ग्वाले के पास जा पहुँची।

सुबह पाँच बजे  वह मोहल्ले का चक्कर लगाता   -दूध ले लो –दूध !मीठा दूध –हल्का दूध — अक्सर सबसे छोटे भाई के लिए मैं उससे दूध लेती  थी ।  नूरा मुझे अपने आँगन में खड़ा देख अचकचा गया ।वह नीम के पेड़ की छाया में  बकरी के  बच्चे को गोदी में लिए खड़ा था |  वह
कुछ समझे उससे पहले ही मेरा रिकार्ड चालू हो गया —- –नूरा तुम मुझे अपना ऊँचा सा डंडा दे दो जिसके एक सिरे पर धारवाला हंसिया ठुका है । तुम खटखट पेड़  की हरी  -हरी  पत्तियां काटकर बकरियों को गिराते हो, मैं उससे इमली की डंडियाँ काटकर गिराऊँगी —पट -पट गिरती इमलियों को मेरी टोली दौड़कर लपकेगी—कितनी मजा आयेगा –बस ,जल्दी से अपना डंडा दे दो ।

नूरा समझ गया– मुझ अड़ियल टट्टू के आगे उसकी एक न चलेगी। सिर खुजलाते बोला –चलो मैं इमली गिरा कर आता हूं। हमारे तो पैर ही नहीं पड़ रहे थे जमीन पर खुशी से । सबसे आगे मैं, फिर टोली और उनके पीछे नूरा हाथ में लंबा सा हंसिये वाला डंडा लिए। यह जुलूस शीघ्र ही
टीले पर जा पहुँचा।उसने पत्तों सहित इमली की टहनियां गिरानी  शुरू कर दीँ। साथियों ने  तो अपनी झोली और जेबें आराम से भर लीं पर मैं केवल मुट्ठियाँ ही भर पाई —-घर पहुँचने से पहले ही मुझे रास्ते में ही खट्टी-मीठी इमलियाँ खत्म करनी थीं ।

टीले से उतरते समय मैं  नूरा के पास आई और धीरे से बोली –पिता जी से कुछ  मत कहना वे बहुत गुस्सा होंगे । हंसकर बोला —दुबारा यहाँ न आना । यह अच्छी जगह नहीं है। मेरी बात मानोगी तो बाबू जी से कुछ नहीं कहूँगा।

मन मसोसते हुए हामी भरनी पड़ी । पोल न खुल जाये, इस डर से सच ही टीले पर फिर नहीं गई । घर तक पहुँचते -पहुँचते मैंने कुछ इमलियाँ  चबा ली— कुछ गटक लीं– तीन -चार बचीं उन्हें फेंकने ही वाली थी कि ——एक  इमली ने  मेरा हाथ पकड़ लिया –अपनी मेहनत की कमाई क्यों फेंकती है बुद्धू !–जाकर बैग में हमें चुप से  घुसा दे और स्कूल में चटकारे ले -लेकर खाना| मैंने मुट्ठियाँ कसकर बंद कर लीं और इमलियाँ  बैग के हवाले कर दीँ ।

अगले दिन स्कूल जाने की जल्दी में थी कि दरोगा की तरह पिता जी ने मुझे पकड़ लिया | नथुने फुलाते बोले –बस्ता दिखाओ —।

–स्कूल को देर हो रही है –आकर —-।

–नहीं! फौरन दिखाओ —कहकर बस्ता उलट दिया।

इमलियां  जमीन पर गिर पड़ीं– लहूलुहान सी– मुझे पुकारती सी लगीं। पर मुझे भी तो अपनी जान बचानी थी सो  जल्दी से  किताबें
बस्ते में ठूंसी और सड़क पर आकर ही साँस ली ।

छुटपन में  खट्टी चीजों के नाम से ही मैं चटकारे लेने लगती , दूसरे— पेड़ से फल तोड़कर या बीनकर खाने में जो मजा है वह बाजार से खरीदकर खाने में कहाँ –पिताजी मेरे मन की यह बात समझ न पाए |

हाँ ,इतना जरूर है कि मेरे अनर्थ होने की जरा सी आशंका होने से उनका दिल दहल जाता । इसीलिए तो मुझ पर कड़ा पहरा था या यूं कहो पालनहारे की प्यारी सी  सुरक्षा छतरी के नीचे मेरा बचपन खिलखिलाता रहता था, जो रह -रहकर याद आता है।

समाप्त

सुधा भार्गव

जन्म -स्थल -अनूपशहर ,जिला –बुलंदशहर (यू .पी .) शिक्षा --बी ,ए.बी टी (अलीगढ़ ,उरई) प्रौढ़ शिक्षा में विशेष योग्यता ,रेकी हीलर। हिन्दी की विशेष परीक्षाएँ भी उत्तीर्ण की। शिक्षण --बिरला हाई स्कूल कलकत्ता में २२ वर्षों तक हिन्दी भाषा का शिक्षण कार्य |किया शिक्षण काल में समस्यात्मक बच्चों के संपर्क में रहकर उनकी भावात्मक ,शिक्षात्मक उलझनें दूर करने का प्रयास रहा । सेमिनार व वर्कशॉप के द्वारा सुझाव देकर मुश्किलों का हल निकाला । सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अंतर्गत बच्चों की अभिनय काला को निखारा । समय व विषय के अनुसार एकांकी नाटक लिखकर उनके मंचन का प्रयास हुआ । संस्थाएं --दिल्ली -ऋचा लेखिका संघ ,हिन्दी साहित्य सम्मेलन तथा साहित्यिकी (कलकत्ता ) से जुड़ाव । दिल्ली आकाशवाणी रेडियो स्टेशन में बालविभाग व महिला विभाग के जुड़ाव के समय बालकहानियाँ व कविताओं का प्रसारण हुआ । देश विदेश का भ्रमण –राजस्थान ,बंगाल ,दक्षिण भारत ,उत्तरी भारत के अनेक स्थलों के अतिरिक्त सैर हुई –कनाडा ,अमेरिका ,लंदन ,यूरोप ,सिंगापुर ,मलेशिया ,नेपाल आदि –आदि । साहित्य सृजन --- विभिन्न विधाओं पर रचना संसार-कहानी .लघुकथा ,यात्रा संस्मरण .कविता कहानी ,बाल साहित्य आदि । साहित्य संबन्धी संकलनों में तथा पत्रिकाओं में रचना प्रकाशन विशेषकर अहल्या (हैदराबाद)।अनुराग (लखनऊ )साहित्यिकी (कलकत्ता )नन्दन (दिल्ली ) अंतर्जाल पत्रिकाएँ –द्वीप लहरी ,हिन्दी चेतना ,प्रवासी पत्रिका ,लघुकथा डॉट कॉम आदि में सक्रियता । प्रकाशित पुस्तकें— रोशनी की तलाश में --काव्य संग्रह इसमें गीत ,समसामयिक कविताओं ,व्यंग कविताओं का समावेश है ।नारीमंथन संबंधी काव्य भी अछूता नहीं। बालकथा पुस्तकें---कहानियाँ मनोरंजक होने के साथ -साथ प्रेरक स्रोत हैं। चरित्र निर्माण की कसौटी पर खरी उतरती हुई ये बच्चों को अच्छा नागरिक बनाने में सहायक होंगी ऐसा विशवास है । १ अंगूठा चूस २ अहंकारी राजा ३ जितनी चादर उतने पैर 4-मन की रानी छतरी में पानी 5-चाँद सा महल सम्मानित कृति--रोशनी की तलाश में(कविता संग्रह ) सम्मान --डा .कमला रत्नम सम्मान , राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान पुरस्कार --राष्ट्र निर्माता पुरस्कार (प. बंगाल -१९९६) वर्तमान लेखन का स्वरूप -- बाल साहित्य, लोककथाएँ, लघुकथाएँ लघुकथा संग्रह प्रकाशन हेतु प्रेस में

One thought on “खट्टी-मीठी इमली

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    यादें पियारी ही होती हैं, इन को वोह ही समझ सकता है जिस वोह हों. बढ़िया लगी.

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