आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (अंतिम कड़ी)
हमारे तत्कालीन सहायक महा प्रबंधक श्री राम आसरे सिंह बहुत ही सज्जन थे। सभी अधिकारियों की व्यक्तिगत समस्याओं पर भी ध्यान देते थे। ऐसे उच्चाधिकारी बहुत कम होते हैं। एक बार की बात है कि हमारे एक अधिकारी श्री मनोरंजन उपाध्याय का स्थानांतरण वाराणसी से गोरखपुर हो गया था। उस समय उनकी श्रीमती जी गर्भवती थीं। मनोरंजन ने इसका जिक्र कुछ अन्य अधिकारियों से किया, तो बात एजीएम साहब तक पहुँच गयी। उन्होंने मनोरंजन को बुलाकर डाँटा और कहा कि यदि यह समस्या थी, तो सीधे मेरे पास आना चाहिए था। उन्होंने तत्काल मनोरंजन का स्थानांतरण रद्द कर दिया।
श्री राम आसरे सिंह के समय ही मेरा प्रोमोशन और स्थानांतरण हुआ था। पहले मेरी पोस्टिंग पटना में होने का आदेश आया था। तो उन्होंने अपने आप ही पटना के सहायक महा प्रबंधक महोदय श्री आर.एस. सिंह से मेरे बारे में बात कर ली और यह निश्चित कर दिया कि मुझे वहाँ कोई कष्ट न हो। हालांकि बाद में मेरी पोस्ंिटग कानपुर में होने का आदेश आ गया, लेकिन इस बात से उनकी महानता का परिचय तो मिलता ही है। दुर्भाग्य से मेरे कानपुर आने के चार-पाँच माह बाद ही उनका देहावसान हो गया। इससे मैं फिर उनके दर्शन नहीं कर सका।
इसके कुछ महीने बाद हमने अपना फ्लैट बदल लिया। नया फ्लैट एक अधिकारी के अवकाश प्राप्त करने पर खाली हुआ था। यह बैंक के आॅफिस के बिल्कुल सामने गुरुकृपा कालोनी में था और पहली मंजिल पर था। हालांकि यह लगभग उतना ही बड़ा था, जितना अनन्ता कालोनी वाला फ्लैट था, परन्तु काफी हवादार था और धूप भी आती थी, इसलिए हमें पसन्द आ गया। उस फ्लैट के ऊपर दूसरी मंजिल पर हमारा एक पूर्व परिचित गुजराती परिवार रहता था। उनके बगल वाले फ्लैट में एक कश्मीरी मुसलमान परिवार रहता था। वह परिवार गर्मियों में कश्मीर चला जाता था और सर्दियों में वहाँ आ जाता था। सन् 1995 की सर्दियों में वह परिवार वहाँ आया। उस परिवार में दो बहुत सुन्दर और प्यारी जुड़वाँ बच्चियाँ थीं- इशरा और इकरा। दोनों लगभग 8-9 वर्ष की थीं। वे हमारी पुत्री मोना के साथ खूब खेला करती थीं। बाद में जब हमें स्थानांतरण के कारण वाराणसी छोड़ना पड़ा, तो वे बच्चियाँ बहुत दुःखी हो गयी थीं।
उन दिनों मैं अपने एक हितैषी और स्वयंसेवक श्री नारायणदास जी की सलाह पर वाराणसी के एक नाक-कान-गला रोग विशेषज्ञ डाॅ. उमेश मिश्रा से अपने कानों की चिकित्सा करा रहा था और कई ऐलोपैथिक दवाएँ खा रहा था। हालांकि मुझे अपने कानों में कोई लाभ होने की आशा नहीं थी, फिर भी नारायणदास जी और अपनी श्रीमती जी की संतुष्टि के लिए मैं चिकित्सा करा रहा था और उनकी बतायी हुई सारी दवाएँ पूरी मात्रा में खा रहा था। लगभग 2-3 माह तक दवाएँ लेते रहने पर मुझे कानों में तो कोई लाभ नजर आया नहीं, उल्टे बुखार आ गया। बुखार भी ऐसा कि बाहर से हाथ-पैर एकदम ठंडे लगते थे और थर्मामीटर पर पारा 102 डिग्री दिखाता था। मैं समझ गया कि यह उन ऐलोपैथिक दवाओं का कुप्रभाव है, जो मैं तीन-माह से खा रहा था। इसलिए मैंने वे दवाएँ तत्काल बन्द कर दीं और डाॅ. मिश्रा की चिकित्सा भी छोड़ दी।
बुखार ठीक करने के लिए श्रीमती जी मुझे नदेसर के ही एक डाक्टर के. शर्मा के पास ले गयीं। उन्होंने जाने क्या दवा दी कि बुखार केवल 2-3 दिन में ठीक हो गया। मैंने भी सोचा कि चलो पिंड छूटा। लेकिन नहीं, लगभग एक माह बाद वैसा ही बुखार फिर आ गया। श्रीमती जी डाॅ. के. शर्मा की योग्यता से बहुत प्रभावित थीं। अतः वे एक बार फिर मुझे उनके ही पास ले गयीं और उनकी कृपा से तीन दिन में ही बुखार फिर ठीक हो गया।
मुझे और श्रीमती जी दोनों को आशा थी कि वह बुखार अब फिर नहीं आयेगा, लेकिन आश्चर्य कि एक महीने के अन्दर ही अन्दर वही बुखार फिर तीसरी बार आ गया। श्रीमती जी मुझे इस बार भी डाॅ. के. शर्मा के पास ले जाना चाहती थीं, लेकिन मैंने साफ इंकार कर दिया। मैं समझ गया था कि यह बुखार दवाइयों से कभी नहीं जाएगा। इसलिए मैंने ऐलोपैथिक दवाओं से सदा के लिए तौबा कर ली और अपना प्राकृतिक चिकित्सा का ज्ञान आजमाने का निश्चय कर लिया।
प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास को सभी प्रकार के बुखारों के लिए अनिवार्य और रामबाण चिकित्सा माना जाता है। इसलिए मैंने उपवास करने का निश्चय किया। श्रीमती जी बहुत भन्नायीं, परन्तु मैंने दृढ़ता से उपवास करना प्रारम्भ कर दिया। मैं केवल उबला हुआ पानी ठंडा करके पीता था और आराम करता था। केवल पहले दिन प्रातःकाल एनीमा भी लिया। एक दिन के उपवास के बाद मेरा बुखार 102 से उतरकर 101 पर आ गया। इससे मेरा विश्वास बढ़ा और श्रीमती जी का झींकना कुछ कम हुआ। मेरे जो मित्र और सहकारी मुझे देखने आते थे वे इस बात पर बहुत नाराज होते थे कि मैं न तो कोई दवा ले रहा हूँ और न कुछ खा-पी रहा हूँ। परन्तु मैंने किसी की परवाह नहीं की और अपना उपवास जारी रखा।
दो दिन के उपवास के बाद अर्थात् तीसरे दिन मेरा बुखार 100 डिग्री पर आ गया। इससे मुझे बहुत सन्तोष हुआ। श्रीमतीजी ने कहा कि अब कुछ खा लो, परन्तु मैंने साफ इंकार कर दिया। उपवास जारी रहा। चौथे दिन बुखार 99 पर और पाँचवें दिन सामान्य हो गया। उस दिन कमजोरी भी बहुत मामूली रह गयी थी। श्रीमतीजी के फिर कहा कि अब खाना खा लो, परन्तु मैंने फिर इंकार कर दिया और केवल पानी पीता रहा। छठे दिन अर्थात् पाँच दिन के उपवास के बाद बुखार और कमजोरी का नामो-निशान नहीं था और मैं काफी स्वस्थ अनुभव कर रहा था। इसलिए उस दिन मैंने दलिया बनवाकर खाया और कार्यालय भी गया।
तब से आज तक 10-11 साल हो गये, परन्तु वह बुखार फिर कभी नहीं आया। तब से मैंने कोई ऐलोपैथिक दवा भी नहीं खायी है और पूर्ण स्वस्थ हूँ। कभी-कभी हल्का बुखार या जुकाम आदि होने पर मैं इसी तरह बिना दवा के ठीक कर लेता हूँ। यहाँ तक कि कभी मेरे बच्चों को भी बुखार आ जाता है, तो मैं उन्हें भी ऐलोपैथी की दवा नहीं देता और आवश्यक होने पर पानी की पट्टी आदि रखकर ही ठीक कर लेता हूँ। ईश्वर की दया है कि इसी कारण हमारे बच्चे अन्य बच्चों से कहीं अधिक स्वस्थ रहते हैं और बहुत कम बीमार पड़ते हैं।
नये फ्लैट में आने के कुछ माह बाद ही मुझे प्रोमोशन का अवसर मिला। इस बार मैंने नेता लोगों के भरोसे रहने के बजाय अपने ही बल पर सफलता पाने का निश्चय किया। मैंने अच्छी तैयारी की। इंटरव्यू लखनऊ में था। सौभाग्य से इंटरव्यू बोर्ड में हमारे मंडल के सहायक महा प्रबंधक श्री राम आसरे सिंह भी थे। वे मुझसे बहुत प्रभावित थे। मेरा इंटरव्यू काफी अच्छा हुआ। इंटरव्यू लेने वालों ने अपना ही ज्ञान बढ़ाने के लिए खास तौर से कम्प्यूटर वायरस के बारे में प्रश्न पूछे थे। मैंने उनकी जिज्ञासा का अच्छा समाधान कर दिया था। कुल मिलाकर मैं परिणाम के प्रति आश्वस्त था।
इस इंटरव्यू का परिणाम लगभग 1 माह बाद आया। वैसे इससे पूर्व ही मुझे मेरे एक हितैषी उच्च अधिकारी ने बता दिया था कि तुम्हारा परिणाम ‘अच्छा’ रहेगा। मुझे प्रोन्नति मिलने की प्रसन्नता थी। लेकिन मेरी पोस्टिंग पटना में की गयी थी। यह मेरी आशाओं पर तुषारापात था। मैं पहले ही अपने घर आगरा से काफी दूर था और यह उम्मीद करता था कि मुझे उसी की दिशा में किसी मंडल में भेजा जाएगा, परन्तु पटना एकदम विपरीत दिशा में है। यहाँ हमारे बैंक के बोर्ड में अधिकारियों के प्रतिनिधि डायरेक्टर श्री के.पी. राय मेरी सहायता को आये। मैंने उनसे कहा कि मैं लखनऊ या कानपुर में पोस्टिंग चाहता हूँ। वैसे मैं दिल्ली या मेरठ भी ले लूँगा, लेकिन पटना नहीं। सौभाग्य से वे कुछ दिन बाद प्रधान कार्यालय जा रहे थे। वहाँ उन्होंने जाने क्या जादू किया कि मेरी पोस्टिंग कानपुर में होने का आदेश आ गया। इससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। मैंने श्री राय को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया।
मैंने सन् 1974 में जब हाईस्कूल की परीक्षा दी थी, तब मैं अपने कानों के इलाज के लिए अपने चचेरे भाई डाॅ. सूरज भान के यहाँ लगभग 2 माह तक कानपुर में रहा था। इसके बाद बीच-बीच में एक-दो घंटे या एकाध रात के लिए कानपुर जाने का अवसर मिला था। अब मैं पूरे 22 साल बाद फिर लम्बे समय तक रहने के लिए कानपुर जा रहा था।
कानपुर में उस समय भी हमारे वे भाईसाहब रहते थे। उस समय वे चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय में ही सिंचाई और जलप्रबंध विभाग के विभागाध्यक्ष थे। उनको वि.वि. की ओर से एक अच्छी कोठी मिली हुई थी। मैं पहले अकेला ही वहाँ गया। मुझे 1 जनवरी 1996 (सोमवार) को अपने नये कार्यालय में जाना था। इसलिए मैं 31 दिसम्बर (रविवार) की शाम को ही कानपुर पहुँच गया। दूसरे दिन प्रातःकाल 10 बजे से पहले ही मैं मोतीझील के निकट स्वरूप नगर में स्थित अपने मंडलीय कार्यालय में उपस्थित हो गया।
उस समय वहाँ के सहायक महाप्रबंधक के पद पर श्री राम बिजय पांडेय जी विराजमान थे, जो काफी समय तक मेरे सामने ही वाराणसी मंडल में भी सहायक महाप्रबंधक रहे थे। वे मुझे बहुत मानते थे। उनकी कृपा से मुझे शीघ्र ही बैंक का एक खाली पड़ा हुआ फ्लैट एलाॅट हो गया। यह फ्लैट मकान नं. 111/37, अशोक नगर में पीछे की ओर था। यह मंडलीय कार्यालय से मात्र 1 किमी दूर और मोतीझील से सटा हुआ था। यही मकान लगभग 8 वर्षों तक कानपुर में हमारा निवास स्थान रहा, हालांकि एक साल बाद ही मैंने वह पीछे वाला फ्लैट छोड़कर उसी मकान में आगे वाला अधिक अच्छा फ्लैट ले लिया था। वहाँ से मेरा विभाग (कम्प्यूटर केन्द्र) लगभग 5-6 किलोमीटर दूर बड़े चौराहे पर इलाहाबाद बैंक की मुख्य शाखा के भवन में पीछे की तरफ था। मैं वहाँ टैम्पो से आता-जाता था।
अपनी आत्मकथा के इस भाग को मैं यहीं विराम देना चाहता हूँ। इससे आगे की कहानी अर्थात् अपने कानपुर निवास और उसके बाद की घटनाओं की कथा यदि सम्भव हुआ तो मैं इस आत्मकथा के अगले भाग में लिखूँगा। तब तक के लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। नमस्कार।
(समाप्त)
विजय भाई , पहला भाग पड़ कर बहुत आनंद लिया . जिंदगी के कौड़े मीठे तजुर्बे पड़ने को मिले, अब दुसरे भाग जो बहुत रैचिक होगा ,ऐसी आशा है और इस का मज़ा लिया जाएगा .
आभार भाई साहब! अगला भाग भी आपको अवश्य पसंद आएगा, इसका मुझे विश्वास है.
नमस्ते एवं धन्यवाद श्री विजय जी। आत्मकथा का पूरा आलेख पढ़ा। आपने बार बार आने वाले बुखार पर प्राकृतिक चिकित्सा से विजय पाई, यह आपकी दृढ़ इच्छा शक्ति एवं विवेक बुद्धि का प्रमाण है। आपकी पदोनत्ति एवं कानपुर पस्थापन / स्थानांतरण का समाचार पढ़कर भी प्रसन्नता हुई। सारा लेख रोचक एवं प्रेरणादायक है। आशा है कि आपकी आत्मकथा का अगला भाग भी बिना व्यवधान के पढ़ने को मिलता रहेगा। कृतज्ञता एवं हार्दिक धन्यवाद।
प्रणाम, मान्यवर ! आभार ! बस आपके आदेश की प्रतीक्षा थी. अगला भाग भी लिखा हुआ रखा है. उसे भी तत्काल प्रारंभ कर रहा हूँ. आपको आत्मकथा अच्छी लग रही है, यह मेरा सौभाग्य है. अगला भाग भी बहुत रोचक और महत्वपूर्ण है. निश्चय ही आपको वह भी पसंद आएगा.
बहुत बहुत धन्यवाद। मैंने स्वंय दयानंद जी के बाद किसी विस्तृत आत्मकथा को यदि पढ़ा है तो शयद वह आप और श्री गुरमेल सिंह जी भमरा जी हैं। कुछ अन्य आत्मकथाएं भी पढ़ी है परन्तु वह आप दोनों की तरह विस्तृत नहीं थी। विगत २० वर्षों में लगभत ७० से ७५ लोगो पर व्यक्तित्व व कृतित्व परक लेख भी लिखे हैं। अतः स्वामी दयानंद जी के बाद यदि मैं किसी को इतना अधिक जान पाया हूँ तो वह आप ही हैं। मुझे प्रसन्नता है कि आप आत्मकथा को जारी रख रहें हैं। आप दोनों का व्यक्तित्व बहुआयामी है जिसे पढ़कर ज्ञान, अनुभव एवं प्रसन्नता मिलती है। सादर धन्यवाद।