कविता
अपने जो लगते अब पराए …
आज भी इन्तज़ार मे वो आँगण तुम्हारा है |
याद तुम्हारे बचपन को अब भी वो यूंही करता है |
तुम व्यस्त हो खबर यह गांव की मिट्टी को भी है |
जिसकी सौंधी खुशबू ने तुमको गिर- गिरकर चलना सिखाया था |
उन बूढ़ी आँखों का इन्तज़ार हो गया अब के और भी लम्बा |
इन छुट्टियों मे अब ना कोई बहाना नया करना |
हैं आँखें सूर्ख पर होंठो पे इक चुपी सी है |
शिकायते शायद मन के किसी कौने मे बस दफन हैं |||
कामनी गुप्ता जम्मू ***
वाह !
भावपूर्ण !
thanks ji