ग़ज़ल
या तो किस्से हैं तेरे तौरे – सितम के, या कि चर्चे हैं मेरे ज़ब्ते – अलम के।
ज़िन्दगी है, या क़बा मुफलिस की, रोज़ पेबन्द लगे जाते हैं ग़म के।
ख़ार कुछ ऐसे तज़ुर्बों के मिले हैं, पाँव फूलों पे भी रखते हैं सहम के।
भूख-औ-अमज़ार से बदहाल हैं लोग, और किस्से वो तेरे रहमो-करम के।
जब कि हर शै में समाया है तेरा नूर, कितने सिमटे हैं वजूद दैरो-हरम के।
दूर जाने को तो जाते हो, मगर ‘होश’, छोड़ जाते हो सबब दीदा-ए-नम के।
तौरे-सितम – अत्याचार का तरीका ज़ब्ते-अलम – दुःख सहना ; क़बा-कपड़ा मुफलिस – दरिद्र, ग़रीब ; ख़ार – काँटे तज़ुर्बात – अनुभव ; अमज़ार – रोग वजूद – व्यक्तित्व ; दैरो-हरम – मंदिर-मस्जिद सबब – कारण ; दीदा-ए-नम – भीगी पलकें
बढियां गजल मान्यवर, उर्दू के अल्फाज से सजी नज्म, यूँ तो समझने में नहीं आती पर आप ने निचे माने लिख दिया तो समझ में आया, आभार मान्यवर
ग़ज़ल अच्छी है. इसका दूसरा शेर किसी शायर के निम्न शेर से बहुत मिलता है-
जिंदगी क्या है मुफलिस की कबा है जिसमें
हर घडी दर्द के पैबन्द लगा करते हैं.
शेर गज़ल की बहर और रदीफ पर बहुत कुछ निर्भर करते हैं , ऐसे में कभी कभी विषय वस्तु (महफूम) मिलती जुलती हो जाती है।