गीत/नवगीत

सूखी हथेली…

रही हथेली सूखी सूखी, बारिश में फैलाई भी थी।
न बख्शा ज़ख्मों को मरहम, चोट उन्हें दिखलाई भी थी।
आज वो लेकर हुनर प्यार का, मुझसे दूर गया तो क्या है,
एक दिन मुझको रीत प्यार की, उसने ही सिखलाई भी थी।

लेकिन जब जाना होता है, तो आना ये क्यों होता है।
कोई बिछड़ कर जाता है तो, दिल आखिर ये क्यों रोता है।
यदि कुचलना ही होता है, यौवन धारित हरे वृक्ष हो,
तो मानव फिर बीज नेह के, किसी के मन में क्यों बोता है।

चलो जिंदगी गयी भी तो क्या, क़र्ज़ में यूँ तो पाई भी थी।
रही हथेली सूखी सूखी, बारिश में फैलाई भी थी….

चलो दशा ये अपने मन की, और पीड़ा ये अंतर्मन की।
न ख़्वाहिश हमको मलमल की, न हसरत मुझको सावन की।
“देव” लिखा है जो कुदरत ने, शायद ये परिदृश्य वही है.
न इच्छा है पुनर्जन्म की, न चाहत है नवजीवन की।

भूल गया सब गतिशीलता, जो अधिगम से आई भी थी।
रही हथेली सूखी सूखी, बारिश में फैलाई भी थी। ”

………चेतन रामकिशन “देव”………

One thought on “सूखी हथेली…

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत खूब .

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