जिन्दगी, पर तू ना मिली…
टूटती जुडती उम्मीदें
बनते बिगते रिश्ते
आती जाती दौलत
मान सम्मान की फिक्र
बीत जाती है पूरी जिन्दगी
साधने में, इन चंद बातों को
पता ही नहीं चला
कब सुबहा हुई, कब शाम ढली
पर तू ना मिली
ऐ जिन्दगी, पर तू ना मिली….
कब बचपन गया,कब तरुणाई
कब जवान चेहरे पर
झुर्रियां उभर आई
पता ही नही चला
कब बीत गई, आधी सदी
पर तू ना मिली
ऐ जिन्दगी, पर तू ना मिली….
बांध के रखा हौसलों का जहां
जगा कर रखा, उम्मीद का दिया
मन्नतें मांगी, पूजा पाठ किया
कभी हर की पौडी
तो कभी संगम घाट गया
दौडता रहा तेरी तलाश में
यूं ही उम्र भर
पर तू ना मिली
ऐ जिन्दगी, पर तू ना मिली….
और मिलती भी कैसे
जहां हम तलाशतें हैं
वहां तू होती नहीं
और जहां तू होती है
वहां हम देखते नही
क्योंकि हमारी नजरें तो देखती हैं
हमेशा बडा, ढूढती है ऊंचा मुकाम
और तू
मुस्कुराती रहती है
किसी गरीब के झोपडे मैं
हम ढूंढते है तुम्हें
बडे बडे आयोजनों में
आलीशान पार्टियों मे
और तूं उडेल देती है
अपना पूरा सुख
एक सावन के एक गीत में
ढोल की कुछ थापों में
और फिर हम कहते रह जाते हैं
ऐ जिन्दगी, तू ना मिली….
सतीश बंसल
सच ही तो है हम उसे वहाँ ढूंढ रहे होते हैं जहाँ वह होती ही नही | सुंदर तलाश |
बहुत आभार शशी जी..
और मिलती भी कैसे
जहां हम तलाशतें हैं
वहां तू होती नहीं
और जहां तू होती है
वहां हम देखते नही
बहुत सुंदर पंक्तियाँ
शुक्रिया वैभव जी…