खूबसरत भ्रम!
जानता हूँ मैं
यह ध्रुव सत्य है,
पुराने दिन कभी
लौटकर नहीं आयगा,
जीवन फिर कभी
पहले जैसा नहीं होगा,
फिर भी …
जब कभी नया चाँद उगता है
अँधेरी निशा में
चाँद की दुधिया रश्मि
धरती के हर कोने में
दुधिया रंग बिखेर देती है,
मेरे मन में भी
उम्मीद के रंग
भर जाता है |
चाँदनी के उजाले में
मेरा पागल मन-मयूर
नाचने लगता है,
आत्म विस्मृत हो
अतीत के सुनहरे
दिनों में खो जाता है |
भोला मन, भूल जाता है …
“जीवन के मरुस्थल में
वह प्यास से छटपटा रहा है,
नज़र के सामने गोचर
बालू में जल-ताल नहीं
नज़र का धोखा है
मृग-मरीचिका है,
यह एक भ्रम है|”
मन के सुख के लिये
विवेक की चाहत है,
मन का भ्रम कभी न टूटे
आखरी स्वांस तक
यह खुबसूरत भ्रम
बरकरार रहे |
© कालीपद ‘प्रसाद’
बहुत खूब !
धन्यवाद विजय कुमार जी !