कविता : चाँद तुम इतने तनहा क्यों हो?
“चाँद तुम इतने तनहा क्यों हो?”
ऐ चाँद !!
मैं रोज़ छत पर जाती हूँ
तुम्हें निहारती हूँ
तुमसे बात करती हूँ
पर तुम उदासी लिए
निरंतर एक जगह देखते रहते हो
तुम्हारी ख़ामोशी बताती है
तुम खुद को तनहा महसूस करते हो।
पर तुम तनहा कहाँ हो !!!
तुम चांदनी संग विहार करते हो
सितारों से घिरे रहते हो
मेघों की गोद में छिपते हो
तुम्हारी चारु किरणें
अवनि को चूमती हैं
ललनाएँ तुमसे अपने सुहाग की
लंबी उम्र मांगती हैं
जल में भरे थाल में
बालक तुम्हे देख कर
करतल ध्वनि करते हैं
नीरवता में भी तुम
ख़ुशी बिखेर देते हो
फिर तुम इतने तनहा क्यों हो???
सुंदरता की तुलना तुमसे होती है
कभी पूनम का चाँद
कभी चौदहवीं का चाँद
कवियों की कल्पना का आधार तुम हो।
प्रेमी ‘चाँद सा चेहरा’ कहकर
अपनी प्रेयसि को संबोधित करते हैं
तुम्हारी शीतलता निर्मलता की
लोग मिसाल देते हैं
विरही प्रेमी का सहारा भी तुम हो
फिर तुम इतने तनहा क्यों हो???
रमजान हो या करवाचौथ
लोग तुम्हारी आस लगाये बैठे रहते हैं।
गरीब बच्चों की
रोटी की कल्पना का
आधार तुम ही हो
तुम तो अमावस में भी
चांदनी बिखेर देते हो
फिर तुम तनहा क्यों हो???
इतना सुन
एक फीकी मुस्कराहट के साथ
चाँद बोला
“जब से लगा है ग्रहण मुझे
मेरा वजूद अंधकार में समाया है
वैज्ञानिकों ने मुझे
निराधार सिद्ध किया है
लोगों का विश्वास
मुझ पर से उठता जा रहा है
लोगों ने यहाँ आकर
मुझमें जीवन न होने के
संकेत दिए हैं
मैं अकेला दूर गगन में
अपनी चांदनी से भी बिछड़ गया हूँ।
तुम्हे क्या पता मेरी व्यथा
जब लोग कहते हैं
चाँद में भी दाग़ है
तो कितना तड़पता हूँ मैं
खुद को असहाय एकाकी
महसूस करता हूँ।
कैसे बताऊँ तुम्हें
मैं कितना तनहा हूँ।
मैं कितना तनहा हूँ।
— नीरजा मेहता
सुंदर रचना