संस्मरण

मेरी कहानी 62

नंदेड़ हज़ूर साहब देखने के बाद हम मुंबई के लिए ट्रेन में बैठ गए। सफर लम्बा था। मुंबई पहुंच कर हम ने दादर में एक कमरा लिया। अपना सामान रखा और खाना खाने के लिए एक होटल में गए जिस का नाम शायद पंजाब होटल था। बिलकुल पंजाबी तंदूरी रोटीआं और दाल सब्ज़ी भी बहुत बढ़िया थी ,जी भर कर खाना खाया। होटल से बाहर निकले ही थे कि हमारे गाँव का एक लड़का मेरी तरफ आता दिखाई दिया। उस को देख कर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। इस का नाम तो मुझे याद नहीं लेकिन यह मेरे दोस्त जीत के मुहल्ले में ही रहता था और इस के बाप का नाम था गेंदा सिंह लुहार ,यह लोग बहुत गरीब थे। यह लड़का गाँव में बहुत शरारती हुआ करता था और मुझे मलूम है यह मुंबई में भी बुरी हरकतें ही करता होगा क्योंकि उस की शकल से ही ऐसा लगता था।

सारा दिन हम पहले दादर और फिर दूर दूर तक घूमते रहे। मुंबई का हम को कोई ज्ञान तो था नहीं ,घूम घूम कर हम फिर दादर आ गए और यहां एक दूकान से मैंने एक रेन कोट खरीदा जो बहुत बढ़िया था। एक नई बात हम ने यह देखी कि बहुत लोग हमारे पीछे पीछे आने लगे और वोह हम को घड़ीआं दिखा रहे थे कि यह घड़ीआं इम्पोर्टेड थीं ,कुछ लोग अंगूठीआं हमें दिखाते लेकिन हम डरते उन से कोई चीज़ खरीदते नहीं थे क्योंकि हमें बताया गया था कि मुंबई में ठग बहुत हैं । फिर अचानक मुझे अपना सांढू कुंदन सिंह आता दिखाई दिया . मेरी पत्नी की बड़ी बहन की सगाई इस कुंदन सिंह के साथ ही हुई थी। हमारी सगाई एक ही दिन में हुई थी। मेरी पत्नी के दादा जी पहले हमारे गाँव मुझे शगुन देने आये थे और इस के बाद नंगल गाँव कुंदन सिंह को शगुन देने गए थे ,यह नंगल चहेड़ू के नज़दीक है। यों तो कुंदन सिंह रामगढ़िया स्कूल में ही पढ़ता था लेकिन हम ने एक दूसरे के साथ कभी कोई ख़ास बात नहीं की थी ,पता नहीं क्यों हम एक दूसरे से कुछ शर्माते थे। हमारे ग्रुप में एक लड़का था जो कुंदन सिंह के गाँव का था ,शायद कुंदन सिंह उस को ही मिलने के लिए आया था। फिर मेरे साथ भी हाथ मिलाया और हमें बताया कि यह जो लोग बेच रहे हैं ,अगर यह बीस रूपए मांगे तो इन को २ रूपए देने को बोलो ,फिर यह चार पांच रूपए की बेच देंगे ,यह लोग बहुत चालाक थे।

टंडन साहब ने एक घडी खरीदी जिस के उस ने पचास रूपए मांगे थे लेकिन बाद में उस ने बीस रूपए में बेच दी। मैंने एक अंगूठी खरीदी जिस के वोह दस रूपए मांगता था ,आखिर में चार रूपए की मुझे दे दी। यह अंगूठी देखने में बिलकुल सोने की लगती थी यहां यह भी बता दूँ कि मुंबई से जब हम वापस पंजाब को जा रहे थे तो टंडन साहब की घड़ी खड़ी हो गई थी और मेरी अंगूठी के ऊपर जो छोटे छोटे रंग बरंगे नग लगे हुए थे सारे ही एक एक करके रास्ते में ही गिर गए और अंगूठी के ऊपर का रंग भी फीका पड़ गया था। एक बात यह भी लिख दूँ कि कुंदन सिंह ने मुंबई में ही ड्राफ्ट्स मैंन का कोर्स कर लिया था और बाद में मुंबई में ही इमारतों के नक़्शे बनाया करता था। अब कब का रिटायर हो चुका है और मुंबई में ही उस का घर है लेकिन कभी कभी सोचता हूँ कि भाग्य क्या क्या दिखाता है , कुंदन सिंह के तीन बेटे थे ,तीनों की शादियां कीं ,तीनों के बच्चे हुए लेकिन दो छोटे बेटे अब इस दुनिया में नहीं रहे। कुंदन सिंह और उन की धर्म पत्नी बीमार रहते हैं। मेरी पत्नी हर हफ्ते उन को फोन करती है लेकिन वोह बहुत उदास रहते हैं। कुंदन सिंह एक स्पोर्ट्स मैन रहा था लेकिन अचानक विटेमन डी की कमी से एक दिन रास्ते में ही गिर गिया और हिप फ्रैक्चर हो गई। पत्नी विचारी डायबैटिक है और डिप्रेशन से भी पीड़त है। दोनों बहुत हंसमुख हुआ करते थे लेकिन किस्मत !

दूसरे दिन हम मेरीन ड्राइव पर चले गए और समुन्दर का नज़ारा लिया। यहां हमें बहुत अच्छा लगा और धीर साहब ने बताया कि फिल्मों की बहुत सी शूटिंग यहां होती है। धीर साहब कालज की ड्रामा सोसाइटी के ऑर्गेनाइजर थे और बहुत दफा वोह नाटकों में बहुत अच्छा रोल अदा करते थे ,इस लिए उन को फिल्मों में बहुत दिलचस्पी थी , इसी लिए वोह हमें आर के स्टूडिओ ले गए। तभी हम ने अशोक कुमार जी को एक बड़ी कार में जाते हुए देखा। सभी बोलने लगे ,” देखो ,वोह अशोक कुमार !” य़ह गाडी बहुत सुन्दर थी जो मुझे इंग्लैण्ड में आ कर पता चला कि वो ज़ैफ़र ४ थी। स्टूडिओ के बाहर कुछ लड़किआं जो नाचने वाली लगती थी ,शायद शूटिंग की इंतज़ार में थीं। वोह स्टूडिओ के बाहर घूम रही थीं और धीर साहब उन से बातें करने लगे और वोह लड़किआं भी धीर साहब की ओर आकर्षित हो गईं थीं क्योंकि धीर साहब उन को अपने बारे में बता रहे थे। उन लड़किओं ने हलके हलके लहंगे पहने हुए थे जो बिलकुल ही साधारण थे और उन का कोई डांस होना था । हम हैरान हुए कि जो डांसिंग गर्ल्ज़ के कपडे फिल्म में इतने सुन्दर लगते हैं ,वास्तव में वोह बिलकुल सस्ते और सादा लगते थे और वोह लड़किआं भी देखने में कोई अच्छी नहीं लगती थीं। दूर से हम को कमाल अमरोही का स्टूडिओ भी दिखाया गिया जिस का नाम मुझे याद नहीं।

और कहाँ हम गए मुझे याद नहीं लेकिन इस के दूसरे दिन बाद हम गेट वे ऑफ इंडिया आ गए। पहले हम को ताज होटल दिखाया जो हम बाहर से बिल्डिंग ही देख सकते थे जो बहुत बड़ी थी ,भीतर जाना तो किसी की हैसियत में भी नहीं था। इस के बाद हमें मिऊज़ियम ले जाया गिया जिस में बहुत पुरारत्व वस्तुएं दिखाई गईं। तकरीबन एक घंटा हम यहां रहे। बाहर आ कर टंडन साहब बोले कि अब हम को एलीफेंटा केव्ज़ देखने जाना था। गेट ऑफ इंडिया से हम मोटर बोट में बैठ गए। यह भी हमारे लिए एक नई बात थी कि जब हम बोट में बैठे तो समुन्दर का पानी देख कर कुछ घबराहट सी हुई एक खौफ सा लगने लगा। क्योंकि बोट में और भी काफी लोग थे ,इस लिए जल्दी ही समान्य हो गए। बोट में बैठे बैठे दूर का नज़ारा हम देखते रहे जो बहुत अच्छा लग रहा था। बहुत देर बाद हम एलिफेंटा के किनारे आ लगे ,बोट से उत्तर कर हम पैदल चलने लगे। यह एक सड़क थी जिस के बीच में रेलवे लाइन थी और कुछ दूर जा कर एक छोटा सा इंजन खड़ा था जिस को अब बहुत रस्ट लगा हुआ था। कोई बात कर रहा था कि अंग्रेज़ों के वक्त यह एक टूरियस्ट स्पॉट हुआ करता था और इस इंजन के पीछे बैठने के लिए सीटें हुआ करती थीं जिन पर लोग बैठा करते थे और बोट से उत्तर कर यहां तक इस ट्रेन में बैठ कर आते थे लेकिन अब तो यह सब खत्म था और लोग पैदल ही चलते थे। सुना है अब फिर से यह ट्रेन चलती है और लोग इस पर चढ़ कर सारे आइलैंड की सैर करते हैं।

कुछ दूर जा कर हम ऊपर जाने के लिए सीढियाँ चढ़ने लगे ,इन सीढ़ीओं के इर्द गिर्द दुकाने थीं जिन पर दुकानदार पोस्ट कार्ड और समुन्दर से निकली अजीब अजीब चीज़ें बेच रहे थे। यह केव्ज़ बहुत ही ऊंचाई पर थी और जो लोग ऊपर जा नहीं सकते थे उन को कुछ लोग पालकी में ले जा रहे थे। ऊपर जा कर हम ने देखा जगह जगह बोर्ड लगे हुए थे जिस पर इन केव्ज़ का इतिहास लिखा हुआ था। हमें पता चला कि इन केव्ज़ को एलिफेंटा नाम पुर्तगेज़ों ने ही दिया था क्योंकि उनहोने यहां आ कर एक बहुत बड़ा हाथी का बुत्त देखा था और साथ में और भी ऐसे बुत्त थे। क्योंकि हम अजंता एलोरा देख कर आये थे ,इस लिए हमें कोई अजीब बात नहीं लगी लेकिन आज मैं सोच कर हैरान हो जाता हूँ कि दुसरी तीसरी शताब्दी में जब यह केव्ज़ बनाई गई थी तो तब कैसे वोह लोग कष्तिओं में जा कर यहां काम करने आते थे। अब तो बहुत सी मूर्तियां टूटी हुई हैं लेकिन उस वक्त यह कितनी सुन्दर होंगी। उस समय खाने के लिए छोटे छोटे होटल बने हुए थे यहां खाना कोई इतना महंगा नहीं था ,अब तो बताते हैं वहां अच्छे अच्छे रैस्टोरैंट बन गए हैं और जंगल में मंगल हो गिया है। हम थक गए थे और वापस जाने के लिए जल्दी में थे क्योंकि हमें बताया गिया था कि आख़री बोट पांच वजे चलती थी और हम पहले ही चल पड़े और आधे घंटे में गेट वे ऑफ इंडिया पर पहुंच गए। हमारे लिए एक बात और हैरानी जनक थी और वोह थी ट्राम जो सड़क के बीच रेलवे लाइन पर चलती थी। यह बहुत धीरे धीरे चलती थी ,इस का हॉर्न ऐसा था जैसे किसी स्कूल की घंटी डिंग डिंग वज रही हो। कहते थे यह ट्रामें अब खत्म होने वाली थीं ,कब खत्म हुईं ,इस का मुझे कोई पता नहीं।

दूसरे दिन हम ने कुछ और जगह देखीं जैसे मुंबई का पोस्ट ऑफिस और एक रेलवे स्टेशन पर बहुत बड़ा क्लॉक था। हम ने कुछ शॉपिंग की और उसी शाम को हम पंजाब के लिए ट्रेन में बैठ गए। कौन सा रुट था यह मुझे याद नहीं लेकिन इतना ही याद है कि जब हम फगवाड़े पुहंचे तो हम बहुत खुश थे . अपना सामान ले कर मैं अपनी मासी के घर पौहंचा यहां मैंने अपना बाइसिकल रखा हुआ था। अँधेरा हो गिया था। मासी ने बहुत जोर लगाया कि मैं वहां ही सो जाऊं लेकिन मैं तो घर जाने के लिए बहुत उत्सक था और आधे घंटे में घर आ गिया। माँ भी खुश हो गई। भूख लगी हुई थी और मैंने जी भर कर खाना खाया और जल्दी ही सो गया। पता नहीं कितने घंटे सोया हूँगा ,जब उठा तो सूर्य देवता अपने पूरे जलाल पर था। अब मैं घर से बाहर को चलने लगा तो ऐसा लगता था जैसे मेरा कुछ गुम हो गिया हो , कुछ भी करने को मन नहीं मानता था। दो दिन मैं कॉलेज नहीं गया ,बस मन उदास ही उदास था। आखिर तो जाना ही था ,सो एक दिन मैं सुबह बहादर के घर अपना साइकल ले कर चले गया और कॉलेज को चल पड़े। कॉलेज पहुंच कर सब कुछ नॉर्मल हो गया। लड़के हम से ट्रिप के बारे में पूछ रहे थे और हम बता रहे थे। सब कुछ back to normal हो गिया।

चलता ………………

 

6 thoughts on “मेरी कहानी 62

  • Man Mohan Kumar Arya

    आज की क़िस्त में वर्णित घटनाएँ पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। कल्पना नहीं हो रही है कि जब आपने युवावस्था में देखा होगा तो आप कितने भावविभोर हुवे होंगे। जिस प्रकार से हम कला को देखकर कलाकार का गुणगान करते हैं वैसे ही इस सुन्दर सृष्टि को बनाने वाला भी कोई कम कलाकार नहीं अपितु बेमिसाल और ऐसा है जैसा कि दूसरा कोई नहीं है। हमें उसका भी ध्यान करना है। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।

  • विजय कुमार सिंघल

    हा हा हा भाई साहब, आपने यात्रियों को ठगने वाले विक्रेताओं का अच्छा वर्णन किया है। इनको लपका कहा जाता है। लपके हर जगह मिल जाते हैं।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , आप का कहा सही है कि यह ठग हर जगह ही होते हैं और बहुत साल पहले यहाँ भी कुछ इटैलियन ऐसे ही आप के नज़दीक कार खड़ी कर देते थे और पहले पचास पाऊंड कहते और पचीस में दे देते .इसी तरह बहुत साल पहले पुर्तगाल लिज्बन में एक घड़ी खरीदी जिस के वोह बीस पाऊंड मांगता था फिर उस ने सात पाऊंड की बेच दी लेकिन वोह घडी दो चार महीनों बाद खराब हो गई और मैंने फैंक दी किओंकि रीपेअर के पैसे ज़िआदा लगते थे .

      • विजय कुमार सिंघल

        ऐसे कई अनुभव मुझे भी हुए हैं भाई साहब, हालाँकि मुझे बेबकूफ बनाना कठिन होता है.

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    विस्तार से यात्रा वर्णन लिखने से हम सबकी जानकारी बढ़ रही है

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद बहन जी .

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