गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मुझे डर है मुहब्बत में न वो बदनाम हो जाये
जमाना प्यार का दुश्मन न किस्सा आम हो जाये

किसी को चाहने की इंतहा होती नहीं लेकिन
निभाओ प्यार ऐसा की जहाँ में नाम हो जाये

न जाने रात दिन क्यूं दिल मिरा बेचैन रहता है
मिरे हो जाइए दिल को फ़क़त आराम हो जाये

मुझे डर है तिरी इस बेरुखी पर मिट न जाऊं मैं
छुपा था प्यार जो मेरा न अब सरआम हो जाये

किसी का हाथ पकड़ो तो निभाओ ‘धर्म’ जीवन भर
न जाने जिंदगी की आखिरी कब शाम हो जाये

— धर्म पाण्डेय

One thought on “ग़ज़ल

  • किसी का हाथ पकड़ो तो निभाओ ‘धर्म’ जीवन भर
    न जाने जिंदगी की आखिरी कब शाम हो जाये वाह वाह ,ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी .

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