धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर के कृतज्ञ सभी मनुष्यों को वैदिक विधि से ईश्वर-स्तुति करनी चाहिये

ओ३म्

मनुष्य विज्ञान की नई-नई खोजों के वर्तमान युग में ईश्वर व अपनी जीवात्मा के मूल स्वरुप को भूल बैठा है। आज ईश्वर को मानना व नाना प्रकार के मत-मतान्तरों प्रचलित विधि से उसकी स्तुति व प्रार्थना करना एक प्रकार का फैशन सा लगता है। कोई भी काम करने से पहले उसका यथेष्ट ज्ञान व विधि जानना आवश्यक होता है। एक कलर्क की नौकरी पाने के लिए कक्षा 10 या बारह उत्तीर्ण होना आवश्यक होता है। इसके साथ टंकण का ज्ञान भी उसके लिये अनिवार्य माना जाता है। हम ईश्वर, जो इस सृष्टि का रचयिता व पालनकर्त्ता है, उसकी स्तुति व प्रार्थना करते हैं तो क्या हमें इसके लिए निर्धारित किसी योग्यता को तय करना आवश्यक नहीं है? सभी मत-मतान्तर वाले कहेंगे की उनके मत में जो रीति व नीति है, वही इस कार्य के लिए उपयुक्त है। वैदिक साहित्य के अध्ययन व ज्ञान से हमें लगता है कि ईश्वर व जीवात्मा के स्वरुप को जानकर तथा वेद की शिक्षाओं को समक्ष रखकर ही ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना की सत्य व यथार्थ रीति व नीति तय की जा सकती है। हम यह मानते हैं कि भिन्न-भिन्न मतों में ईश्वर व जीवात्मा विषयक जो ज्ञान है, वह अल्प व सीमित होने से अपूर्ण व अपर्याप्त है। इसके साथ ही मत-मतान्तरों में ईश्वर के सत्य स्वरुप से भिन्न असत्य बातें भी जुड़ी हुई हैं। अतः यदि उन्हीं के आधार पर स्तुति-प्रार्थना-उपासना की जाती है, तो हम ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के अपने यथार्थ उद्देश्य व लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। मनुष्य जीवन के उद्देश्य को जानने व इसके लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि के यथार्थ स्वरुप का ज्ञान होना आवश्यक व अनिवार्य है।

मनुष्य जीवन पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य माता-पिता के द्वारा सृष्टि नियमों के अनुसार उत्पन्न होता है। जन्म के समय इसका शरीर अत्यन्त लघु व सामथ्र्यविहीन होता है। माता के दुग्ध, पालन व स्वास्थ्यप्रद भोजन से शरीर की उन्नति होती है। किशोरावस्था व युवावस्थ्यायें आती हैं और अन्त में प्रौढ़ व वृद्धावस्था आने के बाद 100 वर्ष की आयु प्राप्त कर व उससे पहले कभी भी किसी रोग, दुर्घटना व अन्य कारणों से मृत्यु हो जाती है। मृत्यु के होने पर मनुष्य का शरीर निष्क्रिय हो जाता है जिससे अनुमान लगता है कि शरीर में निवास करने वाली एक चेतन सूक्ष्म अदृश्य सत्ता शरीर से निकल गई है। मानव शरीर तो पंचभौतिक तत्वों अर्थात् पृथिवी के तत्वों से मिलकर बना होता है। अतः इसे अग्नि में रखकर पंचतत्वों में ही विलीन कर देने का प्राचीन काल से विधान चला आ रहा है। यह प्रक्रिया उपयुक्त, सरल, अल्पव्ययसाध्य व शीघ्र उद्देश्य की पोषक है। बहुत से लोग अन्त्येष्टि संस्कार की महत्ता को अभी तक जान व समझ नहीं पाये हैं, अतः वह शव को जलाने के स्थान पर भूमि में गाढ़ देना ही उचित समझते हैं। अन्त्येष्टि का संबंध ज्ञान व विज्ञान तथा सृष्टि के नियमों से है। यदि मतों के आग्रह से इसे बाहर निकाल कर निर्णय किया जाये, तो यह इस सृष्टि के लिए उचित होगा।

मनुष्य वा प्राणियों का जीवात्मा एक चेतन तत्व होता है। यह अल्प परिणाम, सूक्ष्म, ज्ञान व कर्म अथवा गति के स्वभाव से युक्त, ससीम, अनादि, अनुत्पन्न, नित्य, अनिवाशी, अजर व अमर गुणों वाला है। अस्त्र व शस्त्रों से इसका छेदन नहीं होता, अग्नि से यह जलता नहीं है, वायु इसे सुखा नहीं सकती और वायु इसे गला नहीं सकती है। इस जीवात्मा को ईश्वर के द्वारा इसके पूर्व कर्मानुसार जिसे प्रारब्घ कहते हैं, नाना योनियों में से किसी एक योनि में जन्म मिलता है। जन्म दिये जाने का कारण पूर्व कर्मों के सुख व दुःख रुपी फलों को भोग व मनुष्य योनि में मोक्ष को केन्द्रित कर वेद निर्दिष्ट व निर्धारित शुभ कर्मों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। जिस प्रकार से मनुष्य को जन्म व मृत्यु ईश्वर से प्राप्त होती है, कर्मों के सुख व दुःख रुपी फल ईश्वर से प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार से मोक्ष की प्राप्ति भी ईश्वर के द्वारा ही होती है। मोक्ष सभी प्रकार के दुःखों की पूर्णतया निवृति तथा जन्म व मरण से छुट्टी का नाम है। जिस प्रकार विद्यालय में परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्नति होकर उससे आगे की कक्षा में प्रवेश मिलता है और पूर्व कक्षा के पाठ्यक्रम व अध्ययन आदि कार्यों से अवकाश मिल जाता है, इसी प्रकार से मोक्ष में भी जन्म-मरण से अवकाश होकर इससे ऊपर व ऊंची मोक्ष की अवस्था प्राप्त होती है। अनुमानतः महर्षि दयानन्द व उनके समान कुछ आत्माओं को मोक्ष की प्राप्ति होने का अनुमान किया जाता है।

मनुष्य को जन्म व जीवन ईश्वर के द्वारा प्राप्त होता है जिसमें माता-पिता, समाज एवं पर्यावरण की एक सहायक के रूप में भूमिका होती है। ईश्वर कैसा है, इसका उत्तर हम महर्षि दयानन्द के शब्दों में देना उचित समझते हैं। यही ज्ञान व विज्ञान से युक्त उत्तर है। वेदों के यथार्थ अर्थों के विद्वान महर्षि दयानन्द के अनुसार ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वज्ञ, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है। उन्होंने यह भी बताया कि संसार में केवल एक ईश्वर ही उपासनीय अर्थात् हमारी स्तुति व प्रार्थानाओं के योग्य है अर्थात् इनका पात्र है। स्वामीजी के अनुसार ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव और स्वरुप सत्य ही हैं, वह केवल चेतनमात्र वस्तु है जो एक अद्वितीय, सर्वत्र व्यापक अर्थात संसार के भीतर व बाहर विद्यमान व उपस्थित है, सत्य गुणवाला है, जिसका स्वभाव अविनाशी है, वह ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध और अजन्मा आदि है। ईश्वर का कर्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सब जीवों को उनके पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुंचाना है। ओ३म्, ब्रह्म, परमात्मा आदि नाम ईश्वर के ही हैं और इस सृष्टि को बनाकर इसका पालन व संहार करने का कार्य भी ईश्वर ही करता है। ऐसे गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरुप वाली सत्ता ही ईश्वर संज्ञक व नाम वाली है। ईश्वर का यह सत्य वा यथार्थ स्वरुप है। जीवात्मा व मनुष्यों को इस स्वरुपवान ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना करनी चाहिये। स्तुति व प्रार्थना करने से लाभ यह होता है कि हम ईश्वर के जिस गुण की स्तुति करते हैं वह गुण हमारी आत्मा व जीवन में प्रविष्ट हो जाता है। स्तुति के प्रभाव ये आत्मा के मल रूपी सभी दुर्गुण, दुःख व दुव्र्यस्न दूर होने आरम्भ हो जाते हैं और इनका स्थान स्तुति व प्रार्थना किये गये गुण, कर्म व स्वभाव लेने लगते हैं। धीरे-धीरे स्तोता व प्रार्थना करने वाले की आत्मिक, बौद्धिक, सामाजिक व शारीरिक उन्नति होती है। अविद्या का नाश व विद्या की वृद्धि भी होती है। स्तुति, प्रार्थना व उपासना का सबसे बड़ा लाभ यह है कि मनुष्य ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करता है। इस कृतज्ञता प्रदर्शित करने का नाम ही स्तुति-प्रार्थना-उपासना है। कृतज्ञता इस लिए कि ईश्वर ने हमें मनुष्य के रूप में जन्म दिया, माता-पिता-भाई-बहिन-संबंधी व इष्ट-मित्र प्रदान किये। वेदों का सत्य ज्ञान प्रदान किया, हमारे लिए ही उसने इस सृष्टि को रचा व इसमें नाना प्रकार के सुख प्रदान करने वाले अन्न, जल, वायु व रत्नादि भोग प्रदान किये। वह सर्वान्तर्यामी रूप से हमारी आत्मा में विद्यमान हमें सत्कर्मों करने की प्रेरणा करता रहता है। जब हम कोई अच्छा, परोपकार, सेवा, ईश्वर-स्तुति-प्रार्थना-उपासना, यज्ञ आदि का कार्य करते हैं तो हमें सुख, आनन्द व उत्साह की अनुभूति कराता है और बुरा काम करने पर भय, शंका व लज्जा की अनुभूति कराकर उस कर्म को करने से रोकता है। इस सुख, आनन्द, उत्साह तथा भय, शंका, लज्जा रूपी प्रेरणा करने से ही ईश्वर की जीवात्मा में विद्यमानता व सर्वव्यापकता सहित निराकारता सिद्ध होती है। पुष्प, सृष्टि तथा नाना प्रकार के प्राणियों की रचना व इनमें अनेक विशेष्टिताओं को देखकर भी ईश्वर की सत्ता का होना व अस्तित्व सिद्ध होता है। ईश्वर के सभी मनुष्यों व प्राणियों पर इतने उपकार हैं कि उन्हें गिना नहीं जा सकता। वह हमारे पूर्व के विभिन्न योनियों में अनन्त जन्मों में भी मित्र रूप से हमारा साथी रहा है और आगे भी रहेगा। अतः उसके प्रति स्तुति-प्रार्थना-उपासना, देव यज्ञ अग्निहोत्र आदि वेदानुकूल कर्मों को करके हमें अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करनी चाहिये। इससे जीवन के सभी दुःखों की निवृत्ति होकर सुखों की प्राप्ति सहित हमारे भावी जन्म अति उन्नत होंगे और आगामी किसी न किसी जन्म में मोक्ष की प्राप्ति भी हो सकती है।

संसार भर में रहने वाले सभी मनुष्यों को ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति के सत्य स्वरुप को जानकर उसकी वेद व ऋषियों के द्वारा निर्मित विधि से स्तुति-प्रार्थना-उपासना आदि कर्तव्य करने चाहिये। ईश्वर प्रदत्त देव ज्ञान संसार के सभी मनुष्यों के लिए है। भारत के ऋषि-मुनि संसार के वर्तमान सभी मनुष्यों के पूर्वज हैं। उनका सम्मान करना सबका सामूहिक धर्म है। यदि ऐसा नहीं करेंगे तो ऐसे मनुष्यों का न तो यह जन्म और न भावी जन्म ही उन्नत होंगे और न कभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति की सम्भावना हो सकती है। इसका कारण मोक्ष वेद विहित कर्म-सापेक्ष उपलब्धि है। अन्यथा इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता। अतः संसार के सभी लोगों को एक ही ईश्वर के सत्य स्वरुप को जानकर वैदिक विधि से ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना द्वारा उसे प्राप्त कर कृतघ्नता के दोष से बचना चाहिये और अपना वर्तमान व भविष्य सुधारना चाहिये। सभी मनुष्यों को सत्य को जानकर एक मतस्थ होना व सबको एक मतस्थ करना भी कर्तव्य व धर्म है। आईये, वेदानुसार कृतज्ञता स्वरूप ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना तथा यज्ञादि कर्मों को करके हम ईश्वर, देश व समाज के प्रति कृतघ्नता के दोष से बचें और अपनी सर्वांगीण उन्नति करें।

-मनमोहन कुमार आर्य

3 thoughts on “ईश्वर के कृतज्ञ सभी मनुष्यों को वैदिक विधि से ईश्वर-स्तुति करनी चाहिये

  • मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा .हिन्दू सिख बोधि जैनी सब मरने के बाद शव को जलाते हैं लेकिन मेरा भी यही विचार है कि शव को धरती में समां देना चाहिए .इस से एक तो हर वर्ष लाखों टन जो लकड़ी जलाई जाती है वोह बच जायेगी और ब्रिक्ष तो बचेंगे ही लेकिन लकड़ी जलाने पर जो पर्दुष्ण फैलता है वोह ख़तम हो जाएगा .ज़मीन को खाद भी मिलेगी और लाखों साल बाद की पीडीओं का इन हडिओं की जांच करके गियान में इजाफा होगा जैसे आज हम इजिप्शियन म्मीज़ को देख कर गियान हासल करते हैं .
    धार्मिक विशवास हर एक की अपनी अपनी सोच है .हिन्दू धर्म की नींव ही कर्म फिलौस्फी पर खडी है लेकिन दुनीआं के ज़िआदा लोग इस को नहीं मानते, झूठ ना बोलूं तो मैं खुद भी इस को नहीं मानता लेकिन मैं अपने विचार अपने तक ही सीमत रखता हूँ . कोई काम शुरू करने से पहले अक्सर लोग पाठ पूजा या कोई और कर्म काण्ड करते हैं लेकिन हम ऐसा नहीं करते ,हमारे घर कोई पाखंड घुस नहीं सकता .सारी जिंदगी के दौरान जो मैंने देखा है यह सब धर्म कर्म काण्ड ही करते हैं जो एक भय के कारण है और वोह भय है भगवान् का अल्ला का .भगवान् अल्ला किया है ,कहाँ है ,कैसा है यह कोई नहीं जानता ,सिर्फ एक विशवास के इलावा कोई नहीं जानता . हमारी धरती पर इंसान की जिंदगी सौ साल है ,कोई इस से कुछ साल ज़िआदा जी लेता है कोई कम लेकिन मौत अवश्य है ,इस लिए मौत का डर काहे का ! हम मिआं बीवी अक्सर हँसते रहते हैं कि अब हम ने काफी जी लिया है , अब यहाँ से जाने का कोई गम नहीं , हम ने तो बच्चों को भी कह दिया है कि सिर्फ फैमिली फ़िऊन्रल ही करें ,लोगों का इकठ ना करें . आख़री बात यही है कि अगर भगवान् का डर है तो उस को खुश करने का सीधा उपाए यही है कि अछे कर्म करें .

  • मनमोहन जी , लेख अच्छा लगा .हिन्दू सिख बोधि जैनी सब मरने के बाद शव को जलाते हैं लेकिन मेरा भी यही विचार है कि शव को धरती में समां देना चाहिए .इस से एक तो हर वर्ष लाखों टन जो लकड़ी जलाई जाती है वोह बच जायेगी और ब्रिक्ष तो बचेंगे ही लेकिन लकड़ी जलाने पर जो पर्दुष्ण फैलता है वोह ख़तम हो जाएगा .ज़मीन को खाद भी मिलेगी और लाखों साल बाद की पीडीओं का इन हडिओं की जांच करके गियान में इजाफा होगा जैसे आज हम इजिप्शियन म्मीज़ को देख कर गियान हासल करते हैं .
    धार्मिक विशवास हर एक की अपनी अपनी सोच है .हिन्दू धर्म की नींव ही कर्म फिलौस्फी पर खडी है लेकिन दुनीआं के ज़िआदा लोग इस को नहीं मानते, झूठ ना बोलूं तो मैं खुद भी इस को नहीं मानता लेकिन मैं अपने विचार अपने तक ही सीमत रखता हूँ . कोई काम शुरू करने से पहले अक्सर लोग पाठ पूजा या कोई और कर्म काण्ड करते हैं लेकिन हम ऐसा नहीं करते ,हमारे घर कोई पाखंड घुस नहीं सकता .सारी जिंदगी के दौरान जो मैंने देखा है यह सब धर्म कर्म काण्ड ही करते हैं जो एक भय के कारण है और वोह भय है भगवान् का अल्ला का .भगवान् अल्ला किया है ,कहाँ है ,कैसा है यह कोई नहीं जानता ,सिर्फ एक विशवास के इलावा कोई नहीं जानता . हमारी धरती पर इंसान की जिंदगी सौ साल है ,कोई इस से कुछ साल ज़िआदा जी लेता है कोई कम लेकिन मौत अवश्य है ,इस लिए मौत का डर काहे का ! हम मिआं बीवी अक्सर हँसते रहते हैं कि अब हम ने काफी जी लिया है , अब यहाँ से जाने का कोई गम नहीं , हम ने तो बच्चों को भी कह दिया है कि सिर्फ फैमिली फ़िऊन्रल ही करें ,लोगों का इकठ ना करें . आख़री बात यही है कि अगर भगवान् का डर है तो उस को खुश करने का सीधा उपाए यही है कि अछे कर्म करें .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते एवं धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मैं शव को जलने के पक्ष में हूँ। इससे कुछ ही घंटो में शव पांच तत्वों में मिल जाता है जो अंत्येष्टि का उद्देश्य है और बहुमूल्य भूमि शव को दबाने से प्रदूषित नहीं होती। लकड़ियाँ अधिक वृक्ष लगा कर और कम संताने पैदा कर बचाई जा सकती है। मृतकों की खाद निकृष्ट खाद समझता हूँ। यह प्रदूषित खाद है जिससे वायु प्रदुषण की तरह नाना प्रकार के रोग हो सकते हैं। मैं ऐसी खाद से इससे उत्पन्न भोजन को नहीं कर सकूंगा। भोजन की शुद्धता मन वा बुद्धि के लिए जरुरी है। अंत्येष्टि में गाय का घृत प्रदुषण को ख़त्म करने के लिए ही डाला जाता है। ऑटोमोबाइल और इंडस्ट्रीज से भी प्रदुषण होता है, तेल के इम्पोर्ट पर बड़ी रकम खर्च करते हैं परन्तु उसे बंद करने की सलाह अभी किसी ने नहीं दी है। अध्ययन के लिए पचास या सौ शरीरों की हड्डियां रखी जा सकती हैं। धार्मिक विश्वासों के बारे में परम प्रमाण वेद हैं। जो वेदानुकूल है वह सत्य है और वेद के विपरीत असत्य है। यदि हमारी सोच वेदो के अनुकूल है तो ठीक है, नहीं तो उसे वेदो से कम्पेयर करके धर्म के सच्चे जो वेद के विद्वान हों, उन विद्वानो की शरण लेनी चाहिए। इंडिविजुअल की सोच अधिकतर गलत होती है। हर व्यक्ति स्वयं को विशेषज्ञ समझता है पर होता नहीं है। सामूहिक सोच और वह भी विद्वानों की सोच ही सच्ची हो सकती है। हिन्दू धर्म की नीव वेद के ऊपर है। यह वेद ईश्वर, जिसने सृष्टि को बनाया है, उसका ज्ञान वा सोच है जो कभी गलत नहीं हो सकती है। हमें भी ईश्वर से जो बुद्धि व ज्ञान मिला है उससे सोच कर] तर्क व वितर्क कर ही निर्णय करते हैं। दुनिया के लोग यदि वेदो को जानते और मानते नहीं तो उन्हें कोशिस करनी चाहिए। सत्य की खोज करना और सत्य को ही मानना सच्चा धर्म होता है। सबको संसार से जाना है। लेकिन हमारा अगला जन्म क्या होगा, यह भी देखना है। यदि हम मनुष्य बने तो अच्छा है, पशु, पक्षी, गधे वा घोड़े भी बन सकते हैं। यह कल्पना नहीं सत्य है। मैं इन्हे मानता हूँ। मेरे पास तर्क हैं। सबको कर्म करने की स्वतंत्रता है अतः मेरा कोई आग्रह नहीं है। सत्य का प्रचार करना धर्म है। हमारे पंडितों ने छोड़ दिया था, तो देश वा समाज की दुर्दशा हुई। हमें यह अच्छा लगता है, अतः कर रहे हैं। सादर।

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