लघुकथा

जी हां, कक्षा की दीवारों के मुंह भी होते हैं

यह एक ख़ास कॉलेज की अति ख़ास कक्षा का विलक्षण दृश्य है. एक वरिष्ठ प्रोफेसर कल्पना में ही उस कक्षा में प्रवेश करते हैं. घुसते ही विद्यार्थियों को डांटने लगते हैं, स्सालों पढ़ा करो, तुम्हारे मां – बाप ने बड़ी उम्मीदों के साथ तुम्हें यहां पढ़ने भेजा है. बेचारा, तुम्हारा बाप दिनरात हाड़तोड़ काम करता है तब जाकर तुम्हारी पढ़ाई का बोझ उठा पाता है. बिचारे मां – बाप तो समझते होंगे कि उनकी लाड़ली औलाद दिल लगाकर पढ़ाई कर रही होगी और एक तुम हो कि मां – बाप को धोखा दे रहे हो. हर समय स्सालों को मटरगश्ती और आवारागर्दी की सूझती रहती है. अरे, जमीर नाम की कोई चीज है कि नहीं ? क्या जवाब दोगे अपने आपको, जब आइने में अपने आपको देखोगे तो ? है, कोई जवाब तुम्हारे पास ?

देखा तो हर बच्चा चुप और हतप्रभ.

प्रोफसर – स्सालों, अब बोलो न, जवाब दो, सांप सूंघ गया है क्या ?

प्रोफसर – (गला साफ करते हुए, फिर बोले) पढ़ने का कहो तो स्सालों को दादी-नानी याद आ जाती है, बगलें झाँकने लगते हो, पढ़ा करो. मुझे मालूम है कि इसीलिए मैं तुम्हें बहुत बुरा लगता हूं, अरे हम नहीं कहेंगे तो क्या भगवान आकर कहेगा कि पढ़ा करो. तुमको मालूम है कि नहीं कि हमारे भरोसे तुम्हारे मां-बाप ने यहां भेजा है.

उस काल्पनिक कक्षा में पसरा हुआ सुई पटक सन्नाटा अचानक मृत्यु को प्राप्त हो गया और काल्पनिक कक्षा वास्तविकता में बदल गई और खुसुरपुसुर की आवाजें आने लगी.

पीछे के दाहिने कोने में बैठा एक लड़का चिल्लाया, सरजी, आपने पिछले एक साल में हमारी एक भी क्लास नहीं ली है. सर ने आइना दिखाने वाली इस आवाज की तरफ क्रोधभरी नज़र दौड़ाई, तब तक लड़का चुप होकर नीचे देखने लगा था.

इतने में बाएं कोने से आवाज आई, सर, आपको तो एक साल में लाखों रुपयों का वेतन मिल चुका है, अपने जमीर को भी जिन्दा कीजिए न.
यह सुनकर सर का गुस्सा मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ चुका था. चिल्लाते हुए बोले, हरामखोरों, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, मेरे जमीर को जिन्दा करने की ? परन्तु तब तक वह लड़का दुबक चुका था.

प्रोफसर फिर बोले कि कौन हरामजादा बोला था, खुद सामने आ जाए, नहीं तो परीक्षा भी लेट लूंगा और स्सालों दो चार साल पास भी नहीं हो सकोगे.

अचानक पूरी कक्षा मौन साधना में लीन हो गई परन्तु कुछ ही क्षणों बाद कक्ष की दीवारों ने जोर जोर से खिलखिलाना शुरू कर दिया और प्रोफेसर की बातों पर आपस में परिहास करने लगी. फिर अचानक गम्भीर होकर चीखना शुरू कर दिया, प्रोफेसर साहब, आप दिल लगाकर पढ़ाना शुरू कीजिए, आपका दीदार किए हुए हमें बरसों हो गए हैं. ये बच्चें और आपका स्टाफ आपके बारे में क्या – क्या और कितना कितना बोलते हैं, आप तो नहीं सुन पाते हो पर जैसा कि सब जानते हैं, हमारे तो कान होते हैं. वे बोली प्रोफेसर साहब, हो सके तो हकीकत के आइने में अपनी असली सूरत को भी देखने की हिम्मत करिएगा.

प्रोफेसर साहब की बड़ी-बड़ी आंखें फटी की फटी रह गई और मुंह खुला का खुला ही रह गया, आज तक वे लोगों को अपनी नकली सूरत दिखा कर चुप करते रहे थे, परन्तु इन बेजान दीवारों के जानदार बयान ने उन्हें आइना दिखा दिया था.

— डॉ. मनोहर भण्डारी