सामाजिक

स्वभाषा और लिपियों पर गहराया संकट

स्व-भाषाओं को मुक्ति चाहिए-अंग्रेजी के साम्राज्यवादी षड़यंन्र से

नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद पर आसीन हुए डेढ़ साल हो गया है। वे चुनाव में पूरे देश में मतदाताओं से हिंदी में बोले थे। मतदाताओं को हिंदी में उनकी बातें समझ में आई। उन्हें लोकसभा में बहुमत मिल गया था। अगर अँग्रेजी में भाषण देते, तो उनके दल का एक सदस्य जीत नहीं सकता था। यह सत्य सभी दलों पर लागू होता है। देश के जन सामान्य के लिए विचारणीय मुद्दा यह है कि मतदाताओं की भाषा में प्रतिनिधि संसद में बोलते नहीं है। ऐसा दुनिया में कहीं नहीं होता है। हमारे राष्ट्र का दुर्भाग्य है कि हमारा संविधान मूल रूप से विदेशी भाषा अँग्रेजी में बना है। संसद में सभी विधेयक मूल रूप से अँग्रेजी भाषा में तैयार होते हैं। क़ानून अँग्रेजी में बनाये जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के कामकाज की भाषा अँग्रेजी है।

भारत सरकार का पूर्ण कामकाज अँग्रेजी में होता है। नोटशीट पर कामकाज अँग्रेजी में ही चलता है। राष्ट्र में शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा अँग्रेजी है। हिंदी और प्रादेशिक भाषाओं में राज्य सरकारों का कामकाज होता ही नहीं है। सभी महत्त्व के कामकाज की भाषा हमारी अपनी भाषाऐं नहीं हैं। भारत गणराज्य हैं, किंतु ‘गण’ की भाषाएं कार्यपालिका, न्यायपालिका, व्यवस्थापिका, संसद और शिक्षा के क्षेत्र से अलग कर दी गयी हैं। लोकतन्त्र में मतदाताओं की भाषाओं को मृत होने का रास्ता दिखा दिया गया है। वे अँग्रेजी भाषा के साम्राज्यवादी षडयंत्र का शिकार बनने को अभिशप्त हो चुकी हैं। वे पंगु अवस्था में हैं। अंतिम स्वाँस लेने को विवश हैं।

हिंदी भारत सरकार में दिखावे की प्रथम संवैधानिक राजभाषा है। सरकार के कामकाज की मूल भाषा है अँग्रेजी। सरकार के कामकाज में हिंदी का उपयोग करने के लिए राजभाषा नियमों का जान बूझ कर पालन नहीं किया गया है। गृह मंत्रालय राजभाषा नियमों का पालन कराने में अक्षम सिद्ध हो चुका है। वह सरकार में अँग्रेजी के बढ़ रहे प्रभुत्व के लिए पूर्णत: ज़िम्मेदार है।

संविधान के अनुसार केन्द्र सरकार का प्रमुख प्रधानमंत्री होता है। एक ओर नरेन्द्र मोदी हिंदी के लिए सरकार के बाहर स्वयं को संकल्पित दर्शाते हैं। दूसरी ओर प्रधानमंत्री के कार्यालय में अँग्रेजी का वर्चस्व है। सच्चाई वे जानते ही होंगे। बुधवार २३, दिसम्बर २०१५ की नईदुनिया के पहले पृष्ठ पर हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लिमिटेड का पूरे पृष्ठ का विज्ञापन प्रकाशित हुआ है। नरेन्द्र मोदी के चित्र के साथ प्रकाशित विज्ञापन की पूरी सामग्री हिंदी अखबार में अँग्रेजी में प्रकाशित हुई है। राजभाषा नियमों के अनुसार अखबार की भाषा में विज्ञापन का प्रकाशन कराया जाना चाहिए था। यह विचारणीय है। राजभाषा समितियाँ प्रभावहीन हैं। हिंदी में जनता की ओर से भेजी जा रही ई-मेल का कभी कोई उत्तर नहीं दिया जाता है।

भारत सरकार के खर्च से हिंदी के नाम पर दस विश्व हिंदी सम्मेलन हो चुके हैं। उनमें लिए गए निर्णयों का अता-पता कहीं नही दिखाई दे रहा है। सम्प्रभु गणराज्य में राष्ट्र की भाषाओं का अस्तित्व दाँव पर है, संकट में है। हमारी भाषाऐं और लिपियाँ गहरे अंधकार में डूबती जा रही है। हमारा इतिहास, संस्कृति, परम्परा, जीवन-पद्धति, अध्यात्म और भाषाऐं जो हमारा ठोस आधार है। सभी मृत किए जाने के षढ़यंत्र का शिकार बनने को विवश हैं। दुनिया की सात हज़ार भाषाओं में से क़रीब पांच हज़ार भाषाऐं विलुप्त होने की कगार पर हैं।

हर दिन दुनिया की एक भाषा मृत हो रही है। अगली सदी आते-आते आधी से ज़्यादा भाषाऐं ग़ायब हो चुकी होंगी। उनके साथ इतिहास, संस्कृति, पर्यावरण, सँस्कार और मस्तिष्क भी चला जायगा। भाषायी साम्राज्यवाद भयावह ख़तरे के रूप में हमारे समक्ष उपस्थित हो चुका है। इसका स्पष्ट प्रमाण यह है कि विश्व की बानवें प्रतिशत आबादी पाँच प्रतिशत भाषाऐं बोलती हैं।

९५ प्रतिशत बोलने वालों की संख्या केवल आठ प्रतिशत हैं। अपनी संस्कृति को बचाने लिए अपनी भाषाओं को बचाना ही विकल्प बचा है। हमारी भाषाऐं हम से छीनी जा रही हैं। हम अपने अंक पहले ही खो चुके हैं। अब हमारी भाषाओं की लिपियों से हमें विमुख करने और रोमन लिपि में अपनी भाषाओं को लिखने का दौर जारी हो चुका है। हमारी लिपियां ग़ायब होने के बाद हमारी भाषाओं को मृत करने का रास्ता स्वत: खुल जाने वाला है। हमारे साहित्यकार की दुनिया- कविता, नाटक, कहानी, उपन्यास और व्यंग लेखन से बाहर भाषा के अस्तित्व पर हो रहे छद्म प्रहार की ओर ज़रा भी नहीं है। भाषा और लिपियों के मृत हो जाने की रत्ती भर भी परवाह नहीं हैं। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर मानसिक रूप से ग़ुलाम बनाए जाने का सामना बन्दूक की गोली भी नहीं कर सकती है।

सवाल अत्यन्त महत्त्व का है। राष्ट्र के स्वाभिमान और पहचान का है। भारत का नाम अँग्रेजी में ‘इण्डिया’ देश का पढ़ा-लिखा वर्ग बड़े गर्व के साथ हर जगह बोलने में शान समझता है। अपने आपको ‘इण्डियन’ कहता है। विचारणीय यह है कि ‘भारत’ का नाम ‘इण्डिया’, किसने दिया है? कोई बता सकता है ‘इण्डिया’ और ‘इण्डियन’ क्यों बन गया और प्रचलन में कैसे आ गये ? ‘भारत’ शब्द का अनुवाद ‘इण्डिया’ नहीं हैं। हो भी नहीं सकता है। कोई बतावेगा कि ‘इण्डियन’ शब्द का अर्थ ब्रिटिश डिक्शनरी में क्या है? हमें अपने आपको ‘इण्डियन’ नहीं, गर्व से स्वाभिमान से ‘भारतीय’ कहना होगा। हमें अपने आपको भारतवासी मानने में हज़ारों वर्ष से कभी कोई कठिनाई नहीं आई है। जब चीन, जापान, लंका, पाकिस्तान, बँगला देश, जर्मनी, और अमेरिका के नाम/अर्थ नहीं बदले हैं। हमें अपने देश का नाम भारत बोलने में कभी भी लज्जा नहीं आना चाहिए।

निर्मलकुमार पाटोदी,
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