सामाजिक

करें राष्‍ट्र का  पुनर्निर्माण

रोजगार और भाषा

संपूर्ण विश्‍व में भाषाओं के जन्‍म, उत्‍थान, पतन और विनाश का इतिहास कहता है कि रोजगार मूलक भाषाएं ही लोगों की जुबान पर चढ़कर दीर्घकाल तक अपना अस्‍तितव बनाए रख सकीं हैं।  अत: अंतर्राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी के आमंत्रण पत्र पर विषय के रूप में हिन्‍दी में रोजगार की संभावनाएं यह शीर्षक देखकर लगा जैसे किसी खतरे की घंटी बज गई हो । दिनांक १३ एवं १४, जून, २०१५ को हिन्‍दी साहित्‍य अकादमी, महाराष्‍ट्र एवं लोकसेवा कला एवं विज्ञान महाविद्‍यालय, औरंगाबाद के संयुक्‍त तत्त्‍वावधान में इस संगोष्‍ठी का आयोजन औरंगाबाद में हुआ। इस शीर्षक से यह स्‍पष्‍ट ध्‍वनित होता है कि इस देश में हिन्‍दी अब रोजगार की भाषा नहीं रह गई है। अत: यदि हमें हिन्‍दी को बचाना है तो उसमें रोजगार की संभावनाओं को तलाशने और विकसित करने का समय आ गया है।

इस विषय का मंथन करते हुए सबसे पहले यह प्रश्‍न विचार में आया कि यदि भारत में हिन्‍दी रोजगार की भाषा नहीं रह गई है तो वह कौनसी भाषा है जिसने संवैधानिक मान्‍यता प्राप्‍त बाईस भारतीय भाषाओं और सातसौ से अधिक भारतीय बोलियों के समृद्‍ध परिवार में पट्‍टरानी के सिंहासन पर विराजमान हमारी हिन्‍दी को अपदस्‍थ करने का दु:साहस किया है।

प्रत्‍युत्तर में चारों ओर से एक ही प्रतिध्‍वनी आई- अंग्रेजी, अंग्रेजी और अंग्रेजी। अंग्रेजी माध्‍यम के विद्‍यालय, अंग्रेजी माध्‍यम की कोचिंग, अंग्रेजी के विज्ञापन, अंग्रेजी के नामपट, अखबारों में अंग्रेजी, खोलबंद वस्‍तुओं की बंदी(पैकिंग) पर अंग्रेजी, तैयार परिधानों पर अंग्रेजी, भारतीय फिल्‍मों में अंग्रेजी, टीवी में अंग्रेजी, कम्‍प्‍यूटर में अंग्रेजी, इंटरनेट में अंग्रेजी, व्‍यापार में अंग्रेजी, प्‍यार में अंग्रेजी, नौनिहालों के दुलार में अंग्रेजी, रार(झगड़ा) में अंग्रेजी, खाने में अंग्रेजी, पीने में अंग्रेजी। कुल मिलाकर हर तरफ अंग्रेजी ही अंग्रेजी। अंग्रेजी न हुई जैसे सर्वव्‍यापी भगवान हो गई।

हमारे देश में तूफानी गति से चारों ओर पसरती जा रही अंग्रेजी का प्रभाव देखते हुए देश के अधिकांश लोगों की यह धारणा बन गई है कि अंग्रेजी रोजगार देने वाली भाषा है। विचारणीय यह है कि इस धारणा का आधार क्‍या है? यह धारणा मात्र धारणा ही है या इसमें कुछ सत्‍य भी है? रोजगार और भाषा का सचमुच कोई अंर्तसंबंध है? यदि है तो वह क्‍या है? कैसे बनी यह धारणा? बनी या बना दी गई? क्‍या इस देश में कोई एक भाषा इतनी प्रबल हो सकती है कि उसे रोजगार देने वाली भाषा कहा जा सके? यदि हां तो स्‍वाभाविक रूप से वह कौन सी भाषा हो सकती है?

ये सभी प्रश्‍न एक गंभीर पड़ताल की अपेक्षा रखते हैं।

इस पड़ताल में सर्वप्रथम विचारणीय प्रश्‍न यह है कि क्‍या अंग्रेजी वास्‍तव में रोजगार देने वाली भाषा है? हर दृष्‍टि से इसका स्‍पष्‍ट जवाब है- नहीं। अंग्रेजी रोजगार देने वाली भाषा नहीं है। यदि यह रोजगार देने वाली भाषा होती तो चीन जो जनसंख्‍या और बेरोजगारों की संख्‍या की दृष्‍टि से विश्‍व का प्रथम राष्‍ट्र है, अंग्रेजी को अपनाने के लिए बाध्‍य हुआ होता लेकिन चीन में आमतौर पर जीवन के किसी भी स्‍तर पर अंग्रेजी का ऐसा व्‍यवहार दिखाई नहीं देता कि उसे रोजगार की भाषा का दर्जा प्राप्‍त हो सके। अंग्रेजी न तो वहां शिक्षा का माध्‍यम है, न शासकीय, अशासकीय सेवाओं की भाषा है, न ही व्‍यापार-व्‍यवसाय की। और चीन ही क्‍यों, फ्रांस, जर्मनी, जापान जैसे विकसित कहे जाने वाले किसी भी देश में अंग्रेजी को रोजगार देने वाली भाषा का सम्‍मान प्राप्‍त नही है। एक अध्‍ययन के अनुसार विश्‍व के सर्वाधिक विकसित देशों की सूची में प्रथम बीस देश वे हैं जहां शिक्षा, सेवा, व्‍यापार और व्‍यवहार की भाषा अंग्रेजी न होकर उस राष्‍ट्र की स्‍थानीय भाषा है और बीस सर्वाधिक अविकसित राष्‍ट्र वे हैं जिन्‍होंने अपनी भाषा को त्‍याग कर विदेशी भाषा को शिक्षा, सेवा, व्‍यापार और व्‍यवहार की भाषा के रूप में अपनाया है।

भारत में भी अंग्रेजी रोजगार देने वाली भाषा नहीं है? कुकुरमुत्तों की भांति नित नये ऊगते जा रहे अंग्रेजी माध्‍यम के विद्‍यालयों के बावजूद भारत की कुल जनसंख्‍या का एक बहुत ही छोटा सा भाग अनुमानत: दस प्रतिशत ही ठीकठाक अंग्रेजी जानता है। नब्‍भे प्रतिशत भारत आज भी स्‍थानीय व्‍यवहार में स्‍थानीय भाषा और राष्‍ट्रीय व्‍यवहार में हिन्‍दी का उपयोग करता है लेकिन यह हमारी सरकारों की गलत अर्थनीति, तद्‍जनित गलत विदेश नीति और गलत शिक्षा नीति का मिलाजुला दुष्‍परिणाम है जो हमारे देश में अंग्रेजी को रोजगार देने वाली भाषा और आभिजात्‍य वर्ग की भाषा का रुतबा प्राप्‍त हो गया है। ॠण लेकर घी पीने की गलत अर्थनीति, तद्‍जनित गलत विदेश नीति और गलत शिक्षा नीति के दुष्‍परिणाम स्‍वरूप हम चक्रव्‍यूह में फंसे अभिमन्‍यु की भांति विदेशी ॠण के एक दुष्‍चक्र में उलझ कर रह गए हैं। जिस देश का गरीब से गरीब नागरिक भी एक चिमटी भर नमक उधार लेने को पाप मानता था आज वही देश पाश्‍चात्‍य देशों की ॠण आधारित अर्थनीति को आदर्श मानकर उसका अनुसरण कर रहा है। केन्‍द्र सरकार तो ॠण के दल-दल में डूबी हुई है ही, राज्‍य सरकारें भी विदेशी पूंजी निवेश को अपने-अपने राज्‍य में खींच लाने के लिए आपस में तीव्र प्रतिस्‍पर्धा कर रही हैं। विदेशी पूंजी का यह लालच हमारे हुक्‍मरानों को ॠण की रेवडि़यां बांटने वाली विदेशी सरकारों, संस्‍थानों, प्रतिष्‍ठानों की हर शर्त को देश के हित-अहित का विचार किए बिना आंख मूंद कर स्‍वीकार कर लेने के लिए बाध्‍य करता है। नजर उठाकर चारों ओर दृष्‍टिपात करें तो हम आसानी से समझ सकते हैं कि विगत बीस वर्षों में युवा और किशोर वय के पहनने योग्‍य तैयार परिधानों पर, खाद्‍य पदार्थों और रोजमर्रा उपयोग में आने वाली वस्‍तुओं के डिब्‍बों और खोलों पर अंग्रेजी यूं ही विराजमान नहीं हुई है अपितु यह विदेशी ॠण या सहायता प्राप्‍त करने की अलिखित, अघोषित शर्त का परिणाम है। यदि हमारी सरकारें इस अलिखित, अघोषित शर्त को गुपचुप स्‍वीकार करने को राजी न हों तो ॠण देने वाली विभिन्‍न विदेशी सरकारों और संस्‍थानों द्‍वारा हमें दिए जाने वाले ॠण या सहायता में कटौती करने की धमकी दी जाती है। हमारे देश से निर्यातित वस्‍तुओं की गुणवत्‍ता पर प्रश्‍न चिह्‍न लगाकर उन्‍हें अस्‍वीकार कर दिया जाता है। हमारी विदेश नीति अब तक तो प्राय: इस धमक के प्रभाव में ही निर्मित होती आई है।

इस धमक का प्रभाव केवल विदेश नीति तक सीमित नहीं है। देशी भाषा के विद्‍यालयों की मौजूदगी में मिशनरी स्‍कूलों की स्‍थापना, नर्सरी, केजी के रूप में अंग्रेजी माध्‍यम की शिक्षा का प्रारंभ होकर विश्‍वविद्‍यालयीन शिक्षा तक स्‍थापित हो जाना, देशी भाषा के विद्‍यालयों का एक-एक कर बंद होते जाना और अब अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍व विद्‍यालयों के नाम पर विदेशी विश्‍व विद्‍यालयों का आगमन अनायास ही नहीं हो रहा है अपितु भारत जैसे महान और संसाधन संपन्‍न देश को विकलांग बनाए रखने के एक सोचे समझे षडयंत्र का हिस्‍सा है जो इस भ्रम को सत्‍य के रूप में स्‍थापित करने की दिशा में क्रियाशील है कि अंग्रेजी रोजगार की भाषा है। अंतर्राष्‍ट्रीय विश्‍वविद्‍यालयों का देश में ही सुलभ हो जाना और उच्‍चशिक्षा के लिए सस्‍ती ब्‍याज दर पर ॠणों की उपलब्‍धता में भी एक गहरा अंतरसंबंध स्‍पष्‍ट देखा जा सकता है। ॠण रूपी मदद का यह जाल षड्‍यंत्रकारी शक्‍तियों का शिकंजा है भारतीय प्रतिभाओं को खिलने से पहले ही बंधक बनाने के लिए।

इस दुष्‍चक्र से बाहर निकलने का मार्ग है पर मार्ग जानने चाले द्रोणाचार्य तो स्‍वयं नमक की गुलामी में षड्‍यंत्रकारियों के साथ मिलकर दुष्‍चक्र रच रहे हैं। षड्‍यंत्रकारियों से लोहा लेकर दुष्‍चक्र को भेदकर देश को सुरक्षित बाहर निकाल लेने की योग्‍यता रखने वाले अर्जुन लड़ने को तैयार नहीं हैं। देश के अर्जुनों को लड़ने के लिए प्रेरित कर सकें ऐसे कृष्‍ण भी अपने-अपने वैकुंठों में चैन की वंशी बजा रहे हैं। परिणाम स्‍वरूप आम भारतीय अपने स्‍वाभिमान और राष्‍ट्रीय गौरव को हृदय में ही कुचलकर चलते प्रवाह में बहने के लिए मजबूर है, असहाय है।

इस विषय को लेकर हजारों लोगों से हुए संवाद में जो तथ्‍य उभरकर आए हैं उनका सुखद पक्ष यह कहता है कि अंग्रेजी के माध्‍यम से प्रचलित इस विनाशकारी षड्‍यंत्र को तोड़ने की छटपटाहट तो सबमें है लेकिन दुखद पक्ष यह है कि सदियों की गुलामी झेलने के कारण झुकी रीढ़ को सीधा कर धारा के विपरीत बहने की पहल करने का साहस नहीं है। सब लोग इस प्रतिक्षा में हैं कि कोई पहला कदम बढ़ा दे तो हम पीछे हो जाएं।

इस स्‍थिति को बदलने के लिए हमें पूरी शक्‍ति से यथासंभव शीघ्रातिशीघ्र दो काम करने करने होंगे:—–

सर्वप्रथम हमें देश की युवापीढ़ी को यह समझाना होगा कि अंग्रेजी न तो विश्व भाषा है न ही रोजगार की भाषा। वह है केवल साढ़े चार प्रभावशाली राष्‍ट्रों की भाषा जिनके डॅालर की सत्‍ता की चक्‍की में विश्‍व का लगभग हर विकासशील राष्‍ट्र पिसने को विवश है। इस चक्‍की का एक पाट है विकासशील देशों को विकास के नाम पर सीधे ही या विश्‍वबैंक के माध्‍यम से डॉलर के रूप में मिलने वाले विविध ॠण और दूसरा पाट है इन ॠणों की वसूली के बहाने विकासशील देशों के संसाधनों पर कब्‍जा।

भारत आज विश्‍व का सर्वाधिक युवा आबादी वाला देश है, पढ़ी-लिखी, हर तरह की प्रतिभा से संपन्‍न ऐसी युवा आबादी वाला देश जो कुछ करने पर आ जाए तो असंभव को भी संभव कर दे लेकिन अपनी इस विशेषता के कारण वह ॠण देने में सक्षम वैश्‍विक शक्‍तियों की निगाह में केवल एक मंडी है, एक बाजार, एक शानदार बाजार जहां उनका प्रत्‍येक उत्‍पाद महंगे से मंहगे दामों पर बिक जाता है हमारी युवापीढ़ी के हाथों। किसी शायर की ये पंक्‍तियां हमारी इस अवस्‍था को बखूबी अभिव्‍यक्‍त करती हैं—‘’हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाजार की तरहा। उठती है हर निगाह खरीदार की तरहा।‘’  उन्‍हें बस इतना करना होता हे कि अपने घटिया से घटिया उत्‍पाद को बढि़या से बढि़या चकमक लुभावनी पैकिंग में सजाकर न्‍यूनतम वस्‍त्र घारण करने वाली किसी युवती के हाथों विज्ञापन के रूप में युवापीढ़ी के समक्ष परोसकर उसे फैशन बना दें। ऐसा हर विज्ञापन युवापीढ़ी को आकर्षित करने वाले सभी मसालों से भरपूर होता है और अंग्रेजी में तैयार किया जाता है पर उसमें हिंदी या अन्‍य कोई भारतीय भाषा इतनी तो अवश्‍य मिलाई जाती है कि वह विज्ञापन कुछ-कुछ देशी सा लगे। ऐसे लोकलुभावन विज्ञापनों के माध्‍यम से हर बार, हर भारतीय की जुबान पर अंग्रेजी के दो चार नये शब्‍द चढ़ा दिए जाते हैं। इन विज्ञापनों को संचार के दृश्‍य, श्रव्‍य, पठनीय माध्‍यमों से  दिनभर में पचासों बार महीनों तक, तबतक दोहराया जाता है जबतक कि किसी न किसी देशी वस्‍तु को अपदस्‍थ कर उनका उत्‍पाद हमारे‍ दिलदिमाग पर और अंग्रेजी के वे शब्‍द समानार्थी देशी शब्‍दों को अपदस्‍थ कर हमारी जुबान पर कब्‍जा न कर लें। इस तरह वे एक ही तीर से एक साथ दो लक्ष्‍य साध लेते हैं। शिकार होते हैं हम। उनका उत्‍पाद आसानी से बिक जाता है और उनकी भाषा और व्‍यापक हो जाती है। इस तरीके से अंग्रेजी भाषा और पाश्‍चात्‍य शैली फैशन बन गई है और रोजगार की भाषा होने का दम भर रही है जो कि वस्‍तुत: एक भ्रम से अधिक कुछ नहीं है।

हमारे देश के अधिकांश लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इस सफलता के लिए सर्व संबंधित शक्‍तियां दीर्घकाल से एकजुट होकर बहुत ही योजना बद्‍ध रूप से एक सतत्‍ षड्‍यंत्र को अंजाम दे रहीं हैं, जिसने हमारे और हमारे बच्‍चों के दिमाग में यह कूट-कूट कर भर दिया है कि विदेशी जो कुछ भी है सब अच्‍छा है और देशी जो कुछ भी है सब घटिया है। इस षड्‍यंत्र के पहले चरण में हमारी सर्वजनहिताय शिक्षा पद्‍धति के स्‍थान पर अंग्रेजी माध्‍यम की सर्वजन तनाव बढ़ाय शिक्षापद्‍धति को प्रतिष्‍ठित किया गया। जिसने यह प्रभाव उत्‍पन्‍न किया है कि भारत में जो अंग्रेजी माध्‍यम से पढ़ा नहीं है वह लगभग अनपढ़ ही है। द्‍वीतीय चरण में हमारे मानव श्रम पर आधारित कुटीर उद्‍योगों को नष्‍ट कर मशीन आधारित भारी उद्‍योगों की स्‍थापना हुई। परिणाम स्‍वरूप मानव बेरोजगार हुआ और पूंजी का असमान वितरण होने लगा जिससे कुछ लोग अमीर हुए और अधिकांश लोग गरीब होकर उनके नौकर बनने पर, उनकी शर्तों पर जीने के लिए विवश हुए। अगले चरण में भारतीय संस्‍कृति पर आधारित हमारी जीवन शैली में पाश्‍चात्‍य जीवन शैली का घालमेल कुछ इस तरह से किया गया कि भारतीय शैली से जीना तो जैसे अपराध बनता चला गया, जिसकी सजा मिलती है अपने ही देश में अपने ही लोगों के उपहास का पात्र बनना। स्‍थापित हो गया कि जो देशी जीवन शैली में जीता है वह गंवार है और जो पाश्‍चात्‍य शैली में जीता है वह सभ्‍य है, स्‍मार्ट है। हमारी रसोई हो या शौचालय, विद्‍यालय हों या देवालय इस बदलाव के उदाहरण हैं। इस पाश्‍चात्‍य जीवन शैली को हिन्‍दी फिल्‍मों के माध्‍यम से बखूबी स्‍थापित किया गया। धीरे-धीरे भारतीय परिधान प्रचलन से बाहर हो गए, होते जा रहे हैं। और अब दौर चल रहा है भारतीय जीवन मूल्‍यों को नष्‍ट कर पाश्‍चात्‍य जीवन मूल्‍यों की स्‍थापना का, जिसकी गति बहुत तीव्र है और सफलता सन्‍निकट क्‍योंकि पिछले चरणों की सफलता से हमारा युवावर्ग तहेदिल से भारतीय जीवन मूल्‍यों को त्‍यागने और पाश्‍चात्‍य जीवन मूल्‍यों को अपनाने के लिए तैयार हो चुका है। शराब और शवाब के माध्‍यम से उसे पूरी तरह लम्‍पट बना दिया गया है। अब जैसे भी हो उसे तो बस पैसा चाहिए अपनी लम्‍पटता की संतुष्‍टि के लिए। अपना देश, अपना समाज, अपने लोग, अपनी भाषा, अपनी संस्‍कृति उसके लिए अर्थहीन है।

षड्‍यंत्र के इस प्रचलित चरण के प्रवाह में हम एक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र से एक मजदूर देश में, एक नौकर देश में, एक गुलाम देश में रूपान्‍तरित होते जा रहे हैं। इस तरह विश्‍व की सर्वोत्‍कृष्‍ट सभ्‍यता हमारी आंखों के आगे दम तोड़ रही है और हम सुरापान कर अपनी ही सांस्‍कृतिक मौत का जश्‍न मना रहे हैं। अपनी ही बरबादी पर गौरवान्‍वित हैं। अपने देश के महान इतिहास से सर्वथा अपरिचित, स्‍किन टच जीन्‍स और टॉप में सजी-धजी, शराब की खुमारी में डूबी, लवकेमेस्‍ट्री में गोते लगाती हमारी युवापीढ़ी से हम ‘’मेरा भारत महान’’ ‘’आई लव माय इंडिया’’ ‘’ओ मां तुझे सलाम’’ जैसे चंद नारे लगवाने की एक निरर्थक कोशिश कर रहे हैं।

षड्‍यंत्रकारी शक्‍तियां हमारे संसाधनों से पढ़ीलिखी हमारी सर्वश्रेष्‍ठ प्रतिभाओं को ऊंचे से ऊंचे पैकेज देकर अपना नौकर ही नहीं अपितु अपना प्रशंसक, अपना सर्मथक बना लेती हैं क्‍योंकि रोटी, कपड़ा और मकान जैसी जीवन की मूलभूत आवश्‍यकता की पूर्ति वे पलक झपकते कर देते हैं। यदि हम इसी तत्‍परता से अपने देश की युवा प्रतिभाओं को देशी भाषा में देशी रोजगार उपलब्‍ध करवा सकें तो आज भी देश को गुलामी के गर्त में जाने से बचाया जा सकता है। भूखे को सबसे पहले रोटी चाहिए। जो रोटी देता है वह भगवान जैसा लगता है। अत: गाफिल, मदहोश युवा आबादी को जगाना है तो दूसरे उपाय के रूप में उसे रोजगार उपलब्‍ध करवाना होगा, देशी रोजगार देशी भाषा में। उसमें नौकर नहीं मालिक बनने की ललक जगानी होगी। पर यह होगा कैसे और करेगा कौन? यह यक्ष प्रश्‍न है। इस दिशा में कुछ महान आत्‍माओं के चिंतन से प्रेरणा और दिशा पाकर आचार्य श्री विद्‍यासागर अहिंसक रोजगार प्रशिक्षण केन्‍द्र, इन्‍दौर ने इस यक्ष प्रश्‍न को हल करने की दिशा में एक पग बढ़ाया है। इस केन्‍द्र में केवल रोजगार आधारित प्रशिक्षण ही नहीं अपितु प्रशिक्षण उपरान्‍त अपना उद्‍यम स्‍थापित करने हेतु आवश्‍यक अधोसरंचना की स्‍थापना योग्‍य आर्थिक सहायता भी उपलब्‍ध कराना हमारा लक्ष्‍य है। उन सब सुधी पाठकों से जिनके हृदय में आज भी इंडिया नहीं भारत धड़कता है, इस आलेख के माध्‍यम से निवेदन है कि आप भी राष्‍ट्र पुननिर्माण के इस अभियान में हमारे साथ कदम ताल करें। स्‍वयं जागें औरों को जगाएं। उन भारतीय प्रतिभाओं को खोजने में हमारी मदद करें जिन्‍हें अपने देश से प्‍यार है, जो अपने देश को भारत और स्‍वयं को भारतीय कहते हुए लज्‍जित नहीं अपितु गौरवान्‍वित होते हैं, शाकाहार और भारतीय संस्‍कृति में जिनका विश्‍वास है, जो नौकर नहीं मालिक बनने योग्‍य हैं और तत्‍पर भी, जो इतने साहसी और पौरुषवान है कि अपने पुरुषार्थ से भारतीय उत्‍पादों को विश्‍वस्‍तरीय मानक(ब्रान्‍ड) बनाने को उत्‍सुक हैं और जो स्‍वयं को देशी भाषा में अभिव्‍यक्‍त करते हुए गर्व अनुभव करते हैं। यह है एक नन्‍हीं सी पहल इंडिया को फिर भारत बनाने की, आजादी को बचाने की। आइए, हम सब मिलकर कुछ करें, अपने लिए, अपनों के लिए ताकि महासत्‍ता की परीक्षा में उत्‍तीर्ण हो सकें।

— विजयलक्ष्‍मी जैन                                                          

आचार्य विद्‍यासागर अहिंसक रोजगार प्रशिक्षण केन्‍द्र, इन्‍दौर

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