तरक्की
एक समय की बात है, गंगा के मनोरम तट पर एक छोटा सा गाँव बसता था। लोग समृद्ध न होते हुए भी बहुत खुश थे। ग्रामेतर कार्यों को करते हुए वे अपने सुख-दुख को साझा करते और प्रसन्न रहते थे। चारों तरफ हरियाली का सामराज्य था। गाँव के तालाब में सदैव उजले उजले हंस तैरा करते थे।
फिर एक दिन उस गाँव में तरक्की पहुँच गयी। सभ्य दुनिया का नायाब अविष्कार टीवी आ गया। सीधे-सादे लोगों की कूपमंडूकता भंग हुई और बाहरी दुनिया के बारे में ज्ञान बढ़ा । गाँव से कुछ नौजवान नौकरी करने के लिये बाहर चले गये। वे वहाँ से अपने घर पैसा भेजने लगे जिससे उनके घर दूसरे घरों से ज्यादा संपन्न हो गये। आर्थिक बिषमता से अहं पनपा और रिश्तों में दूरी आने लगी। फिर कुछ और नौजवान धन की लालच में नौकरी करने बाहर जा बसे।
कालांतर मैं सभी सक्षम लोग गाँव छोड़ गये और पीछे रह गये उनके बूढ़े परिवारीजन, अपने अपने पुश्तैनी मकानों की देख भाल करने के लिये। पैसा अपने साथ हर तरह की संपन्नता तो लाया परन्तु, जिन चौपालों पर कभी किस्से-कहानियों का मेला होता था, वहाँ अब अपने अपने बेटे- बेटियों की समृद्ध का प्रपंच रह गया था। नीम के चबूतरों पर अब बच्चों की किलकारियाँ नहीं सुनाई पड़ती थी। बागों और खेतों को देखने वाले न बचे तो गाँव उजाड़ सा हो गया। गाँव का तालाब तो पक्का हो गया था पर अब उसमें हंस नहीं नज़र आते थे। अलबत्ता, रात में लक्ष्मी की सवारी उल्लुओं का शोर अवश्य सुनने को मिलता था।