उसने जीना सीख लिया था
जब एक महिला स्वयं अपनी दोस्त बन जाती है,
तो उसका जीना आसान हो जाता है.
यही उसके जीवन की सफलता का मूलमंत्र है. उसका हंसता-खेलता घर-परिवार था. पति कमाते थे, वह घर संभालती थी. माता-पिता के स्नेह-प्यार में पले बच्चे स्कूल जाने लग गए थे. वह पढ़ी-लिखी नहीं थी, पर संतुष्टि का पाठ पढ़ने के लिए किसी स्कूल की ज़रूरत नहीं होती है. अचानक उसके सिर पर गाज गिर पड़ी. पति दुर्घटना के शिकार होकर चल बसे. प्रश्न था, अब वह क्या करेगी. उसे और कुछ न आता हो, बच्चे पालने तो आते ही थे. उसी को ही उसने अपना पेशा बना लिया और आया बन गई. अपने संपर्क में आए सभी बच्चों को उसने वैसे ही प्यार से पाला, जैसे अपने बच्चे पाले थे. दुनिया भर में उसके पाले हुए बच्चे छाए हुए हैं. आज वह 80 साल की हो गई है. अब भी उसके पाले हुए बच्चे अपने परिवार के साथ उससे मिलने आते हैं, क्योंकि उसने जीना सीख लिया था.
कहानी अच्छी लगी। मुझे कहानी में वसुधैव कुटुंबकम और सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझने की शिक्षा दृष्टिगोचर हो रही है। सबको यह जानना चाहिए कि सबमे ईश्वर का विद्यमान है, इस आधार पर कर्तव्य निर्धारित कर सभी आचरण करेंगे तो परिणाम वही होगा जिसका उल्लेख आपकी कहानी में हुआ है। इस सुन्दर व शिक्षाप्रद कहानी के लिए धन्यवाद।
प्रिय मनमोहन भाई जी, यह नज़रिए का ही कमाल है, वास्तव में उस महिला ने वसुधैव कुटुंबकम के मंत्र को ही आत्मसात कर जीना सीख लिया है. बेमिसाल प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.
लीला बहन, लघु कथा अच्छी लगी .दुनीआं में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा ,फिर किओं न दिल को बड़ा करके जिएँ ,दुसरे किसी से सच्चे दिल से पिआर किया हो तो वोह बेअर्थ नहीं जाता .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. हम यह प्रत्यक्ष देख रहे हैं. बेमिसाल प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.