मुक्तक
पनपते रोज बेमौसम सियासत के दरिंदे हैं
शज़र को लूट जाते वो किए बेघर परिंदे हैं
कुदूरत को निभाते हैं कहें फिर ये वतन मेरा
नहीं वो हो नहीं सकते पराये मुल्क बंदे हैं।
ख़ुशी के खूब पैमाने छलकते हैं सियासत में
कहीं जज्बात हैं बिकते खुदा ले तू इनायत में
दगा देना तेरी आदत गयी है बन अभी समझे
मिली है झूठ मक्कारी हमें अब तो अमानत में ।
— गुंजन
अच्छे मुक्तक !