मुक्तक/दोहा

मुक्तक

पनपते रोज बेमौसम सियासत के दरिंदे हैं
शज़र को लूट जाते वो किए बेघर परिंदे हैं
कुदूरत को निभाते हैं कहें फिर ये वतन मेरा
नहीं वो हो नहीं
 सकते पराये मुल्क बंदे हैं।

ख़ुशी के खूब पैमाने छलकते हैं सियासत में
कहीं जज्बात हैं बिकते खुदा ले तू इनायत में
दगा देना तेरी आदत गयी है बन अभी समझे
मिली है झूठ मक्कारी हमें अब तो अमानत में ।

— गुंजन

गुंजन अग्रवाल

नाम- गुंजन अग्रवाल साहित्यिक नाम - "अनहद" शिक्षा- बीएससी, एम.ए.(हिंदी) सचिव - महिला काव्य मंच फरीदाबाद इकाई संपादक - 'कालसाक्षी ' वेबपत्र पोर्टल विशेष - विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ------ विस्तृत हूँ मैं नभ के जैसी, नभ को छूना पर बाकी है। काव्यसाधना की मैं प्यासी, काव्य कलम मेरी साकी है। मैं उड़ेल दूँ भाव सभी अरु, काव्य पियाला छलका जाऊँ। पीते पीते होश न खोना, सत्य अगर मैं दिखला पाऊँ। छ्न्द बहर अरकान सभी ये, रखती हूँ अपने तरकश में। किन्तु नही मैं रह पाती हूँ, सृजन करे कुछ अपने वश में। शब्द साधना कर लेखन में, बात हृदय की कह जाती हूँ। काव्य सहोदर काव्य मित्र है, अतः कवित्त दोहराती हूँ। ...... *अनहद गुंजन*

One thought on “मुक्तक

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छे मुक्तक !

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