कविता

मधुगीति : प्रष्फुटित चित्त है हुआ जब से !

प्रष्फुटित चित्त है हुआ जब से, महत महका किया है अन्तस से;
अहम् विकसित हुआ किया चुप से, शिशु सृष्टि को निरखता उर से !
चाहता द्रश्य हर लखे झट से, किए विचरण तके प्रकृति पट से;
दृष्टि आकाश अग्नि जड़ ताके, बना सम्बन्ध जीव जग समझे !
ललक ले समझे भाषा लय मुद्रा, बोलता चलता जो भी मन आता;
कभी गा देता रुष्ट हो जाता, घूम फिर मुस्कराता वह रहता !
दूध से नाता निरन्तर रहता, शौच कर सोना समझना होता;
घड़ी से दोस्ती सदा रहती, प्रकाश झाँकी भली है लगती !
बातें बहुतेरी ज्योति से होतीं, ज्ञान औ कर्म में रति रहती;
वृद्ध वत झाँकता है अन्दर से, ‘मधु’ को लगता बृह्म अन्त: से !
गोपाल बघेल ‘मधु’

One thought on “मधुगीति : प्रष्फुटित चित्त है हुआ जब से !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    बहुत सुंदर लेखन

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