ग़ज़ल
पैमाना हो या प्यार छलकता ज़रूर है
सीने में अगर दिल हो धड़कता ज़रूर है
महफिल में वो बैठे हैं अपने लब सिए हुए
आँखों में मगर कोई झलकता ज़रूर है
उसको नहीं है फर्क वीराना हो या गुलशन
कहीं भी खिले फूल महकता ज़रूर है
रूकता नहीं कभी भी ये अच्छा हो या बुरा
वक्त हो कैसा भी गुज़रता जरूर है
यूँ ही नहीं होता कभी चेहरा धुआं-धुआं
अंदर तुम्हारे कुछ तो सुलगता ज़रूर है
— भरत मल्होत्रा