संस्मरण

मेरी कहानी 137

मैं अपने लैप टॉप पे एक दिन “मेरी कहानी” लिख रहा था तो कुलवंत बोली,” यह आपकी कहानी कब ख़तम होगी ?”, मैंने कहा, “बस अब ज़िआदा नहीं है “. मन ही मन में मैं हंस पड़ा और सोचने लगा, कि अब इस कहानी को टॉप गेअर में डाल दूँ और जल्दी खत्म कर दूँ । लिखते लिखते फिर सोच आई कि इस में जल्दी क्या है, क्या जरूरी घटनाएं, छोड़ दूँ ? नहीं नहीं, इस से तो मैं खुद से ही बेइंसाफी कर डालूंगा, मैं सोचने लगा। यूं तो ज़िंदगी में हज़ारों इंसान मिलते हैं लेकिन जिन लोगों के साथ बहुत समय बताया होता है, उन को कैसे छोड़ा जा सकता है। यह बात तो सही है कि ज़्यादा डीटेल में किसी के बारे में लिखना असम्भव है लेकिन उनको अपनी कहानी का हिस्सा तो बनाया ही जा सकता है।

थोड़ा सा अपने दोस्त मुख्तार सिंह के बारे में लिखूंगा, जिन को बहुत सालों से मिल नहीं सका हूँ क्योंकि कुछ गलतफैहमिओं और इलग्ग विचारों के कारण हमारा मिलना जुलना बंद हो गया था। इस का यह मतलब नहीं, हमारा कोई झगड़ा हुआ था, बस यूं ही उन को हमारी कोई बात अच्छी ना लगी होगी और यह मिलना जुलना बंद हो गया। मुख्तार के साथ बिताए पल तो नहीं ना भुलाए जा सकते ?. कुछ दिन पहले मुख्तार बहादर को मिलने गया था और मेरे बारे में उस को बहादर से ही पता चला था कि मेरी सिहत ठीक नहीं है, फिर उस ने बहादर से मेरा टेलीफोन नंबर लिया और हमारे घर टेलीफोन किया और कुलवंत ने उस के साथ बातें कीं।

मुख्तार, राणी स्कूल में मेरे और बहादर के साथ ही पड़ता था। मिडल पास करने के बाद मैं, बहादर, जीत और हरभजन तो फगवाड़े हाई स्कूल में दाखल हो गए थे लेकिन मुख्तार पढ़ाई छोड़ कर खेती बाड़ी में मसरूफ हो गया था। उनके खेत हमारे खेतों के साथ ही थे और कभी कबार मिलना हो जाता था। मुख्तार के पिताजी गाँव के पटवारी थे और गाँव की जमीन के मुआमले में मसरूफ रहते थे। मुख्तार का बड़ा भाई भी कहीं पटवारी लगा हुआ था। जब मैं इंगलैंड में आया तो कुछ समय बाद मेरे पिताजी जो यहां ही रहते थे, इंडिया चले गए थे। क्योंकि पिता जी ने ट्रैक्टर ले लिया था और खेती करने लगे थे, तो मुख्तार के साथ उन का मेल मिलाप बढ़ गया था। मुख्तार की उम्र मेरी उम्र होने के बावजूद, पिता जी से उस का प्रेम बहुत दोस्ताना था, और यह बातें मुख्तार ने यहां आकर बताई थी, जब मुख्तार भी इंगलैंड आ गया था। कुछ बातें उस ने मुझे बताईं, जिन के बारे में मुझे कोई गियात नहीं था।

मुख्तार के पिता जी क्योंकि पटवारी थे और ज़मीन के मामले में उन्हें सब कुछ पता था, एक दफा मेरे दादा जी ने मुझे एक खेत के रकबे यानि खेतरफल के बारे में पुछा, खेत की लम्बाई चौड़ाई ऐसी थी कि खेत के पाँचों ओर से छोटी बड़ी भुजाएं थी कि मैं यह सवाल हल ना कर सका। दादा जी मेरे साथ गुस्से हो गए और बोले, ” तू स्कूल में पड़ता क्या है ?”, उधर से मुख्तार के पिता जी आ रहे थे और उन्होंने सब सुन लिया था, आते ही उन्होंने एक दो मिनट में खेत का रकबा बता दिया और बोले, ” चाचा ! ऐसी पढ़ाई यह लड़के नहीं जानते, यह तो हमारा ही काम है, हम तो रोज़ाना काम ही यही करते हैं “, मेरे मन का बोझ कम हो गया।

जब मुख्तार यहां आया तो कुछ साल बाद मुझे एक दोस्त से पता चला कि मुख्तार भी हमारे टाऊन में ही रहता था। फिर अचानक मुख्तार से मिलना हो गया और उस ने बताया कि वह बुशबरी में रहता था। मिल कर हम दोनों बहुत खुश हुए और एक दूसरे के एड्रैस नोट कर लिए। बहादर से मैं ने बात की और एक शाम को मैं कुलवंत बहादर और कमल मेरी गाड़ी में जो लाल रंग की वॉक्सवैगन बीटल थी में बैठ कर मुख्तार के घर चले गए। उस समय हमारी बिटीआ पिंकी छोटी सी थी और बहादर की बिटीआ किरण भी छोटी सी थी। जब मुख्तार के घर गए तो हम पहली दफा मुख्तार की पत्नी से मिले और यहां तक मुझे याद है, मुख्तार के भी शायद एक बच्चा ही था।

मुख्तार के घर किया किया बातें हुईं, यह तो याद नहीं लेकिन हम ने पिछली सारी यादों को दुहराया जो स्कूल के ज़माने में हुई थीं। मुख्तार उस समय गाड़ी नहीं चलाता था और वह बस पकड़ कर हमारे घर आने जाने लगा था । मुख्तार बहुत ही शरीफ है और दिल का साफ़ है। जब भी बहादर हमें मिलने आता, हम इकठे ही मुख्तार को मिलने चले जाते। औरतें और बच्चे घर में ही रह कर गप छप करतीं और हम किसी ना किसी पब्ब में चले जाते जो उस वक्त एक रावायेत ही थी। उस समय यह बात भी आम परचलत थी कि अगर कोई अपने महमानों को पब्ब नहीं ले जाता था, तो इसको अच्छा नहीं समझा जाता था, लोग बाद में बातें करते थे कि “इसने कोई सेवा नहीं की, यह तो कंजूस है, ग्लास भी नहीं पिलाया “, अब यह बात कोई ख़ास नहीं है और आज के बच्चे अगर जाते हैं तो सभी पैसे अपने अपने खरचते हैं।

कुछ सालों बाद मुख्तार ने यह घर बेच कर, हम से कुछ दूर पैनफील्ड में नया घर ले लिया था। एक दिन हम मुख्तार को मिलने पैनफील्ड उन के घर चले गए। दोस्तों से यह मिलना जुलना अक्सर वीकऐंड पर ही होता था, जब बहुत लोगों को छुटी होती थी। चाय पानी पीने के बाद गप्प शप कर के मुख्तार मुझे कहने लगा, “गुरमेल ! चल पब्ब को चलते हैं ” और हम उठ कर चल पड़े। कुछ दूरी पर ही एक नया नया बना पब्ब था। बार रूम छोड़ हम स्मोक रूम में चले गए क्योंकि वहां कुछ शांत वातावरण था और यह रूम बहुत खूबसूरत था। इस रूम में अक्सर बार रूम से सभी तरह के ड्रिंक कुछ महंगे होते हैं लेकिन वातावरण अच्छा होता है। काउंटर पर जाते ही हम ने दो बीअर के ग्लास लिए और ले कर एक छोटे से टेबल पर जा बैठे। बहुत बातें हम ने कीं और फिर मुख्तार ने एक दिलचस्प कहानी सुनानी शुरू कर दी।

मुख्तार बोला, ” गुरमेल ! एक दिन रविवार था और शाम को एक टेलीफोन आया, एक शख्स बोला, हैलो ! यह मुख्तार का घर है ? जब मैंने हाँ में जवाब दिया तो वह शख्स बोला, भाई साहब आप की पत्नी के गाँव से तीन गियानी आये हुए हैं और आप से मिलना चाहते हैं। जब उस ने तीनों के नाम लिए तो पत्नी ने कहा कि वह उन्हें जानती है। मैंने उन को कह दिया कि वह आ जाएँ। एक घंटे बाद हमारे घर के बाहर एक गाड़ी आ खड़ी हुई जिस में से तीन गियानी निकले जो नीले रंग की पगढीआं, चूड़ीदार पजामे और नीले रंग की जैकेट पहने हुए थे। वह कुंडली दार मूंछों में अजीब से लग रहे थे। यह वह समय था जब पगड़ी किसी किसी के सर पर ही होती थी।

जब घर में दाखल हुए तो पत्नी को उन्होंने हाथ जोड़ कर सत सिरी अकाल बुलाई, पहले तो पत्नी ने उन को पहचाना नहीं, फिर जब उन्होंने संक्षेप सा परिचय दिया तो पत्नी समझ गई। वह छोटे छोटे थे जब वह इंगलैंड आई थी। बातें होने लगीं जिन का मुझे तो कुछ पता नहीं था लेकिन पत्नी को कुछ दिलचस्पी हो गई थी। चाय पीते पीते मैंने यूं ही उन से पुछा, भाई जी आप बीयर बगैरा पी लेते हो ? तो एक बोल पड़ा, कोई ज़्यादा तो नहीं बस थोड़ा थोड़ा…… ,मैं उन की बात समझ गया और कहा, यह चाय रहने दो, हम पब्ब को चलते हैं। घर से आते वक्त मैंने पत्नी को कह दिया था कि अगर यह लोग पीते हैं तो खाते तो जरूर होंगे, तू जल्दी जल्दी मीट बना।

इस के बाद हम इसी पब्ब में आ गए। यूं ही हम बार में दाखल हुए तो तीनों गियानी सब कुछ देख कर कुछ घबरा से गए क्योंकि वहां सब गोरे ही बैठे थे, बस एक दो ही इंडियन थे। मैंने चार ग्लास काउंटर से लिए और एक ट्रे में रख कर एक टेबल की ओर आ गया जो खाली था। ग्लास उस पर रख दिए। हम बीयर पीने लगे और इंडिया की बातें करने लगे। जब हम पी रहे थे तो कुछ गोरे इन गियानिओं की ओर देख देख कर हंस रहे थे। सब गियानी कुछ शर्माए शर्माए से बैठे थे। जब दो दो ग्लास पी लिए तो एक गियानी बोल पड़ा, मुख्तार सिंह जी, अब यहां से हमें चलना ही चाहिए, अगर घर में ही कुछ है तो वहीँ थोड़ा सा पी लेते हैं। गलास हम ने खत्म कर लिए और पब्ब से बाहर आ गए। रास्ते में एक ऑफ लाइसेंस की दूकान थी और मैंने वहां से एक वाइट हौरस की बोतल खरीद ली। अंग्रेज़ी विस्की को देख कर उन के चेहरे खिल उठे क्योंकि उस समय इंडिया में विस्की अमीरों के चोचले ही थे।

घर आ गए और हम फ्रंट रूम में ही बैठ गए। बोतल मैंने टेबल पर रख दी और कैबनेट से खूबसूरत ग्लासीआं निकालीं और टेबल पर रख दी। फिर मैं सिटिंग रूम में गया और मिसेज़ से पुछा कि मीट को अभी कितना वक्त लगेगा, तो उस ने अभी आधा घंटा इंतज़ार करने को कहा। कुछ मूंगफली के पैकेट ले कर मैं फिर फ्रंट रूम में आ गया। मैंने बोतल खोल कर थोड़ी थोड़ी ग्लासीओं में डाली और इस के बाद कोक डाल कर गलासिआं भर दीं और हम ने चीअरज कह कर पीनी शुरू कर दी। पीते पीते उन को जल्दी ही नशा होने लगा। अब वह खुल कर बातें करने के मूड में हो गए। क्योंकि वह सभी ढाडी जथे वाले थे जो सारंगी और ढड (डमरू ) से गाते थे, अब वह एक हाथ का डमरू बना कर दूसरे हाथ की उंगलिओं से बजाने लगे और कुछ कुछ गाने भी लग गए। कुछ देर बाद पत्नी हमारे सामने मीट की प्लेटें रख गई।

मीट की प्लेटें देख कर उन की बांछें खिल गईं। सब की ग्लासीआं खत्म हो गईं थीं, अब एक गियानी ने खुद ही बोतल उठाई, ढकन खोला और सभी ग्लास भर दिए। जैसे इंडिया में रिवाज है, उन्होंने ग्लासीआं उठा कर एक दम हलक से उतार लीं और मीट खाने के लिए पलेटों में हाथ चलाने लगे। इतनी जल्दी उन्हें पीते देख कर मैं हैरान हो गया। अब वह अपने असली रूप में आ गए थे और उन में शिष्टाचार की बातें गायब हो गई थी। वह मीट का टुकड़ा उठाते, टूटे हुए लफ़ज़ बोलते और उन के हाथ से मीट का टुकड़ा गिर जाता। वह हंस पड़ते, फिर से मीट का टुकड़ा उठाते और यह फिर गिर पड़ता। उन के चिट्टे चूड़ीदार पजामों पर मीट की तरी के छींटे पढ़ पढ़ कर अजीब सी तोते रंगी रंगत पैदा कर रहे थे।

अचानक एक के मुंह से निकला, अच्छा जी अब हमें इजाजत दो, मैंने भी फटा फट जवाब दे दिया, अच्छा जी मेरा दोस्त आप को छोड़ आएगा। मैं उठ कर उसी वक्त पास के ही अपने दोस्त निर्मल के घर गया और उसे बोला कि वह गियानिओं को छोड़ आये। जब दोस्त ने गियानिओं की हालत देखि तो वह हंसने लगा कि वह इन्हें कैसे ले जाएगा, मैंने कहा, यार जैसे भी हो इन्हें यहां से ले जा। हम दोनों ने बड़ी मुश्किल से उन गियानिओं को गाड़ी में बिठाया और मेरा दोस्त निर्मल उन्हें ले गया। आधे घंटे बाद निर्मल वापस आ कर हंसे जा रहा था और उस ने बताया कि उस ने उन गियानिओं को गुर्दुआरे के नज़दीक उतार दिया था और वह इधर उधर झाँक रहे थे ”

मुख्तार और मैं अक्सर मिलते ही रहते थे। एक दिन बैठे बैठे उन गियानिओं को याद करके हंस रहे थे तो मुख्तार ने गियानिओं की एक और बात बता दी। मुख़्तार ने बताया कि कुछ गियानी एक गुर्दुआरे की शर्धालू बुढ़िया के घर किराए पर रहते थे। बुढ़िया मीट अंडे को बहुत नफरत करती थी और गियानिओं का दिल मीट खाने को करता था लेकिन बुढ़िया के कारण घर में बना नहीं सकते थे। फिर उन्होंने अपने किसी दोस्त को कहा कि वह मीट का पतीला बना कर चुपके से उन के पास पहुंचा दे। जब बुढ़िया घर पर नहीं थी तो दोस्त मीट का पतीला गियानिओं को दे आये। गियानी पतीला अपने बैड रूम में ले गए और मज़े से खाया।

गियानी खा कर कहीं चले गए और जब बुढ़िया घर आई तो उस को अजीब सी बू आई। वह सारे घर में घूमने लगी और अचानक गियानिओं के रूम में चली गई । पतीले को देख उस ने ढकन उठाया तो वह मीट देख कर तड़प उठी और उसी वक्त गुर्दुआरे में पहुँच गई और सभी को गियानिओं की करतूत के बारे में बताया। अब गुर्दुआरे में लोग इस बात पर बहस करने लगे कि इन लोगों को मीट खाना चाहिए था या नहीं। कुछ लोग बोल रहे थे कि गियानिओं के लिए यह सब गलत था और कुछ कह रहे थे कि इस में कोई गुनाह नहीं था। आखर में बात गई आई हो गई।

बहादर बताता था कि मुख्तार की सिहत बहुत अच्छी है और बहुत सिहतमन्द है लेकिन उस की बीवी को अल्ज़ाइमर रोग हो गया है और उस की यादाश्त खत्म हो गई है। वह विचारी कोई मीट अंडा बगैरा नहीं खाती थी और खुराक अच्छी खाती थी, फिर भी विचारी को यह रोग हो गया, अब मुख्तार उसे छोड़ कर कहीं जा नहीं सकता। कहीं जाना हो तो उस के किसी बच्चे को पास रहना पड़ता है। मुख्तार अपनी बीवी की बहुत सेवा करता है और खुद ही उसे खिलाता है और कपडे पहनाता है क्योंकि बीवी को कुछ भी याद नहीं होता। मुख्तार बहुत ही अच्छा है, इसी लिए मैंने उस को भी अपनी कहानी का हिस्सा बनाया।

चलता .. . . . . . . . . . . . . .
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6 thoughts on “मेरी कहानी 137

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। किश्त पूरी पढ़ी, बहुत अच्छी लगी। सच्चा अच्छा हमदर्द मित्र मिलना मनुष्य का सौभाग्य है। इस मामले में मैं धनी हूँ. सादर धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , धन्यवाद . इस मामले में मैं भी धनि हूँ . बुरे लोगों को मैंने कभी अपनी दोस्ती का हिस्सा नहीं बनाया .

      • मनमोहन कुमार आर्य

        जी धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। नमस्ते।

      • मनमोहन कुमार आर्य

        जी धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। नमस्ते।

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आज की किस्त बहुत मज़ेदार लगी. आपको कहानी लिखने का चस्का लग गया है, हमें पढ़ने का. लिखते जाइए, जब तक बाबाजी लिखवाते हैं. यही लक्ष्य तो आपके तन-मन-मस्तिष्क को तरोताज़ा रख रहा है, यह नशा छोड़ने लायक नहीं है. अति सुंदर बाल कविता के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      धन्यवाद जी , कहानी कहने वाला और सुनने वाला दोनों ही हों तो कहानी के अर्थ कुछ बन पाते हैं . सुनने वाला बेछ्क सवा लाख ही हो , लिखने वाले को हौसला अफजाई मिल जाती है .

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