अब तो सुलझाना है
जनसंख्या-समस्या गीत
जनसंख्या-समस्या को, अब तो सुलझाना है
ज़रा ये तो समझ लें हम, क्या इसका फ़साना है-
1.अन्न-दालों-फलों तक हम, अब पहुंच नहीं पाते
कभी हमदम ये अपने थे, अब दूर ठिकाना है-
2.हम कहते पढ़ें बच्चे, पर दाखिला मुश्किल है
स्कूल भी कम पड़ते, बड़ा महंगा ज़माना है-
3.हम चाहें हों स्वस्थ सभी, पर संभव हो तो कैसे
हर चीज़ की तंगी है, यही मर्ज़ पुराना है-
4.रहने को न घर मिलते, फुटपाथों पे डेरा है
उसका भी किराया है, वरना उठ जाना है-
5.बिजली-पानी की कमी, हर रोज़ सताती है
जल ही तो जीवन है, यह महज तराना है-
6.जनसंख्या को बढ़ने से, ‘गर अभी न रोका तो
चिड़िया चुग खेत गई, फिर बस पछताना है-
बहुत खूब, बहिन जी ! आपने आज के समय की कठिनाइयों को कम शब्दों में भली प्रकार व्यक्त किया है.
प्रिय मनमोहन भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको गीत सटीक लगा. अति सुंदर व सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.
लीला बहन , आप ने तो कविता में सारी तस्वीर खींच दी . जो आप ने लिखा है यह चिंताजनक है . पचास पचपन साल पहले शुद्ध ऑर्गेनिक फ़ूड मिलती थी और खालस देसी दूध और घी मिलता था .देश विवाज्न्न के समय देश की आबादी ३६ करोड़ थी और आज की बात मुझे करने की जरुरत नहीं है .लोग ज़हरें खा और पी रहे हैं क्योंकि इन ज़हरों के बगैर कोई चीज़ पैदा ही नहीं होती .कया कहें ” की बनू दुनीआं दा सचे पातशाह वाहगुरू जाणें”
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. अति सुंदर प्रतिक्रिया के लिए आभार.