संस्मरण

मेरी कहानी 146

आनंद पुर साहब की यात्रा से हमारे मन की मुराद पूरी हो गई थी। कुलवंत ने तो पहले भी आनंद पुर साहब के दर्शन किये हुए थे लेकिन मैं पहली और आख़री दफा ही गिया था। कुलवंत का नजरिया धार्मिक था लेकिन मेरा नजरिया धर्म से कुछ ज़िआदा था। आनंद पुर साहब की धरती पर तो एक ऐसी कौम की नींव रखी गई थी, जिस ने पंजाब का इतहास ही बदल दिया था। मैं कोई इत्हास्कार नहीं हूँ लेकिन मुझे उस धरती के दर्शन करने थे जिस पर गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिखों को अमृत छका कर सिंह बना दिया था। क्योंकि हिन्दू धर्म में नीची जातों से वित्करा किया जाता था, इस लिए गुरु जी ने जब पांच पियारे बनाये थे तो वोह सब नीची जातों से ही लिए गए थे। उन का मकसद एक ऐसा समाज पैदा करना था जो इकठे हो कर जालम मुगलों का मुकाबला करें।

यही वजह है कि पंजाब में जात पात तो है लेकिन कोई ख़ास नफरत नहीं है और आज छोटी जात के लोग ऊंची जातों से भी आगे हैं। उन के घर बहुत अछे हैं, डाक्टर हैं, टीचर हैं, और मैजिस्ट्रेट लगे हुए हैं। बाहर के सिखों के तो बच्चे भी चर्मकारों के बच्चों से शादीआं कर रहे हैं। गोबिंद सिंह जी एक कवी, गुरबाणी रचेता और फिलासफर थे, वोह समझ चुक्के थे कि जब तक हिन्दुओं में एकता का भाव पैदा नहीं होता, हमलावर उन को मुसलमान बनाते ही रहेंगे, यही कारण था कि उन्होंने विसाखी वाले दिन पांच पियारे बना कर एक योधा कौम का नींव पत्त्थर रखा था । इसी धरती पर जब गुरु जी ने फ़ौज तैयार करनी शुरू की तो पहाडी राजे जो मुगलों को खिराज दे कर मज़े कर रहे थे, उन्होंने गुरु जी को तंग करना शुरू किया था , जिस की वजह से गुरु जी को पहाडी राजों के साथ युद्ध करने पड़े और इसी कारण गुरु जी ने इस आनंद पुर साहब की धरती पर पांच किले बनाए। मुझे अफ़सोस इस बात का है कि यह किले हम देख नहीं सके क्योंकि कुंदी को वापस मुड़ना था। फिर भी जितना देखा बहुत अच्छा था।

आनंद पुर से वापस आ कर कुछ दिन आराम किया और फिर एक दिन निर्मल ने हवेली ढाबे में खाना खाने का प्रोग्राम बना लिया। इस हवेली ढाबे को सभी पंजाबी जानते हैं और जब भी कोई पंजाबी बिदेश से पंजाब आता है तो यहाँ जरुर आता है। पहले हम ने यह ढाबा देखा नहीं था। एक शाम को निर्मल परमजीत कमलजीत मैं और कुलवंत गाडी में बैठ कर ढाबे की ओर चल पड़े। हम तो पुराना रास्ता यानी माधो पुर चाहेडू और जीटी रोड ही जानते थे लेकिन निर्मल ने शॉर्ट कट कर लिया और हम जल्दी ही ढाबे पर पहुँच गए। हमारे समय में तो सब कचे रास्ते होते थे, इस लिए हमे यही रास्ते पे जाना पड़ता था लेकिन अब तो कोई गाँव रहा ही नहीं था जो एक दुसरे गाँव को सड़क से ना जुड़ा हो।

जब हम जा रहे थे तो रास्ते में एक छोटा सा पुल आ गिया। निर्मल बोला,” भा जी ! यह पुल नदी के ऊपर बना हुआ है, याद है जिस को बार्ष के दिनों में पार करना मुश्किल होता था ?” , मैं नदी जिस को वेई भी कहते थे, के दोनों तरफ देखा लेकिन यहाँ अब कोई ख़ास नदी दिखाई देती ही नहीं थी, बिलकुल सूख गई थी। बरसात के मौसम में कभी इस नदी में बाढ़ आती ही रहती थी और यही नदी जीटी रोड पर चाहेडू के पुलों के नीचे से जाती थी। बचपन में कभी हम इस में नहा कर तलहन गुरदुआरे में मेला देखने गए थे और दुसरे दिन सकूल में हम को मास्टर जी ने मुर्गा बनाया था। नदी की ऐसी हालत देख कर मुझे कुछ दुःख सा हुआ। हम जल्दी ही हवेली ढाबे पर पहुंच गए। इस ढाबे से कुलवंत का गांव धैनोवाली नज़दीक ही है।

जब हम पहुंचे तो वहां कार पार्क कारों से भरी हुई थी एक आदमी कार पार्क करने के लिए मदद कर रहा था, उस ने एक जगह पर हम को पार्क करने के लिए कह दिया। कार से निकल कर हम ढाबे के सामने खड़े थे। गेट पर एक सरदार जी स्मार्ट यूनिफार्म में खड़े थे। पहले हम इर्द गिर्द घूमने लगे। जगह बहुत बड़ी थी जिस में पंजाब के सीन बनाए हुए थे। एक खूही बनाई हुई थी, जिस पर एक रस्से से बांधी हुई बाल्टी पड़ी थी। और भी पंजाब के बहुत सीन बनाए हुए थे। ढाबे पर शाकाहारी भोजन ही सर्व होता था, इस लिए, लोग स्त्रीओं और बच्चों के साथ आए हुए थे। हमारे ज़माने में तो किसी होटल या ढाबे पर जाना किसी जरूरत की वजह से ही होता था लेकिन आज तो बाहर खाना एक आम फैशन ही बन गया है , लोग सज धज के किसी होटल या ढाबे पर जाते हैं और आज तो पीज़ा और चाइनीज़ का आम फैशन हो गया है।

जब हम ढाबे के अंदर जाने लगे तो देखा एक ट्रक दीवार को तोड़ता हुआ कुछ आगे निकला हुआ था, यह सीन एक आर्ट का नमूना ही था जो बहुत अच्छा लग्गा। सरदार जी ने हमे सत सिरी अकाल बोला, हम भीतर दाखल हुए तो देखा बहुत बड़ा हाल था, जिस में लोग अपने परिवारों के साथ बैठे खाने का मज़ा ले रहे थे। इस डाइनिंग हाल में पुराना पंजाब दिखाने की कोशिश की गई थी । दीवार में कुछ पुरातन ढंग के दरवाज़े लगे हुए थे, जिस पर पुराने ताले लगे हुए थे। हर टेबल पर छोटे छोटे लकड़ी के छकड़े रखे हुए थे, जिन में गुड़ सौंफ और अन्य पदारथ रखे हुए थे जो खाने के बाद खाये जाते हैं। ऐक लड़का हमे देख कर आया और उस ने हमे एक टेबल पर विराजमान हो जाने को कहा।

कुछ देर हम सारा परिवार बातें करते रहे और फिर कोई दस मिनट बाद एक लड़का पंजाबी ड्रैस पहने हुए हमारे पास आया और मैन्यू पकड़ा दिए। मैन्यू पड़ते हुए हम ने जो जो खाना था, फैसला कर लिया। उर्द की काली दाल मखनी तो हर पंजाबी की पसंदीदा है और खास कर मेरी तो यह फेवरिट दाल है, और इस के साथ काफी कुछ ऑर्डर देने का सोच लिया, जिन का मुझे याद नहीं। वह लड़का फिर आया और हर एक का ऑर्डर लिख के चला गया।

कुछ देर बाद जब वह लड़का एक ट्रॉली पर खाने ले कर आया तो खाने देखकर ही मज़ा आ गया। मेरी फेवरिट दाल के ऊपर माखन पड़ा हुआ था जो गांव की याद दिला रहा था। बड़े बड़े तंदूरी फुल्के स्कूल के पुराने दिनों की याद दिला रहे थे, जब हम प्रभात होटल पर खाना खाया करते थे। खाना खाते खाते और बातें करते करते पता ही नहीं चला कब खाना खत्म कर लिया। इस के बाद छोटे से छकड़े पर पड़ी सौंफ गुड़ और कुछ अन्य चीज़ें खाईं। अब हम रिलैक्स हो कर बातें करने लगे और कुछ देर बाद लड़का बिल ले कर आ गया। निर्मल ने बिल दिया और हम उठ कर बाहर जाने लगे। बाहर भी खाने के स्टाल लगे हुए थे, जिन पर वे लोग खा रहे थे जो ढाबे के भीतर नहीं जाना चाहते थे। खाने का मज़ा तो आया ही लेकिन यह खुला वातावरण बहुत पसंद आया।

इस ढाबे के साथ ही लक्की ढाबा था जिस पर शायद मांसाहारी और बीयर पीने के शौकीन जाते थे। इन ढाबों के कुछ दूर ही बहुत बड़ा एक और रैस्टोरैंट बना हुआ था, जिस का नाम लिली था। सुना था,यहां खाना कुछ महंगा था लेकिन हम यहां जा नहीं सके थे। कुछ साल हुए कुलवंत बच्चों को साथ ले कर इंडिआ आई थी, और उस ने बताया था कि इन ढाबों के नज़दीक ही एक बहुत अच्छा पार्क बन गया है जिस को रंगला पंजाब कहते हैं। बच्चों ने इसे बहुत पसंद किया था, यहां पंजाब के सारे पुरातन सीन बनाए गए थे और एक घुमार मट्टी के बर्तन बना रहा था। सारे बच्चों ने रंगला पंजाब बहुत पसंद किया था और आ कर मुझे फोटो दिखाई थीं। कितना कुछ बदल गया था। इसी जीटी रोड पर कभी हम अपने साइकलों पर जालंधर सिनिमा देखने जाया करते थे और इस सड़क के दोनों ओर सिर्फ खेत ही खेत होते थे, अब तो जंगल में मंगल बन गया था।

यह डे आऊट भी एक अभुल याद है क्योंकि इस के बाद इस ढाबे पर मेरा जाना कभी नहीं हुआ। राणी पुर वापस आ कर हम ने गुरदुआरा मैह्दिआना साहब जाने का प्रोग्राम बना लिया। कुछ दिन बाद हम ने एक ड्राइवर जिस के पास बड़ी गाड़ी थी, के साथ बात कर ली और हमारी गाड़ी चलाने की कोई सरदर्दी नहीं थी। सुबाह के वक्त हम घर से चल पड़े। जल्दी ही हम फगवाडे पहुंच गए और लुधियाना की तरफ चल पड़े। यह गुर्दुआरा लुधियाना डिस्ट्रिक्ट में ही है और जगरावां के नज़दीक है। लुधियाना जा कर हमे ट्रैफिक का कुछ सामना करना पड़ा लेकिन शहर से निकल कर सड़क पर कोई कोई गाड़ी ही जा रही थी। दोनों तरफ दूर दूर तक हरे हरे गेंहूं के खेत थे। धूप निकली हुई थी और सफर का मज़ा आ रहा था। काफी देर बाद हम गुर्दुआरा मैह्दिआना साहब पहुँच गए।

गुरदुआरे के नज़दीक पहुँच कर हम ने गाडी पार्क की और अब पैदल चल पड़े। सामने गुरदुआरा दिखाई दे रहा था। रास्ते में बहुत बुत्त बने हुए थे, जो हम देखते जा रहे थे। सब बुत्त सिख इतहास से सम्बंधित हैं। बुत्त इतने अछे थे कि हम ने सोचा कि पहले गुरदुआरे जा कर माथा टेक कर परशाद ले लें और बाद में देखें । बहुत सुन्दर गुरदुआरा बना हुआ है। माथा टेक कर हम ने परशाद लिया और गुदुआरे में दीवारों पर पेंटिंग देखने लगे। पेंटिंग इतनी अच्छी थी कि इतहास की किताब पड़े बगैर ही मालूम हो रहा था। यूं तो बचपन से गुर्दुआरे में और गुरपुरब के दौरान सिख इतहास की बातें याद थीं लेकिन इन को देख कर लगा जैसे हमारे सामने सब कुछ हो रहा था।

पेंटिंग्ज देख कर हम बाहर आ गए और बुत्त देखने शुरू कर दिए। यह बुत्त पचीस एकड़ के दायरे में बने हुए हैं। मुझे उस शख्स का नाम याद नहीं जिस ने यह बुत्त बनाए लेकिन सारा सिख जगत उस का ऋणी रहेगा क्योंकि उस ने इतहास को ज़िंदा कर दिया है । यह बुत्त देख कर कभी खून खौलने लगता है, कभी रोना आता है और कभी उन सिंहों की कुर्बानियों पर गर्व होता है जिन्होने मुगलों से लड़ कर देश पर अपना सब कुछ वार दिया था । बहुत तो याद नहीं लेकिन कुछ सीन नहीं लिखूंगा तो मेरा यह कांड लिखना बेकार होगा। पहला सीन था जो एक बड़े प्लैट फार्म पर बना हुआ था, इस में एक भट्टी में लकड़िआं जल रही थीं और आग के शोले बाहर आ रहे थे, उस के ऊपर बहुत बड़ा पतीला रखा हुआ था, जिस में भाई दयाला जी को ज़िंदा ही उबाला जा रहा था क्योंकि उन्होंने इस्लाम कबूल करने से इंकार कर दिया था। भाई दयाला जी आंखें बंद करके शांत चित्त गुरबाणी का जाप कर रहे थे। प्लैट फ़ार्म की दीवार पर सारा इतहास लिखा हुआ था। यह सीन देख कर आंखें नम हो गईं।

एक और एक दीवार बनी हुई थी जिस में गुरु गोबिंद सिंह के छोटे साहिबज़ादे जोरावर सिंह और फतेह सिंह जी को ज़िंदा दीवार में चनाया जा रहा था, दो आदमी ईंटें लगा रहे थे और कुछ मुगल सिपाही बर्षे ले कर इर्द गिर्द खड़े थे। एक तरफ सारा इतहास लिखा हुआ था। एक बहुत बड़े प्लैटफॉर्म पर नादर शाह ईरानी के हुकम से सिखों का आम कत्लेआम किया जा रहा था और इस का सारा इतहास लिखा हुआ था। आगे गए तो बन्दा सिंह बहादर के सामने उस के छोटे से बच्चे का दिल निकाल कर बन्दा बहादर के मुंह में डाल रहे थे और इर्द गिर्द बहुत से सिंह पिंजरों में कैद किए हुए थे जिन को बाद में सज़ा देनी थी, बन्दे बहादर की पत्नी को भी बहुत तसीहे दिए जा रहे थे। मुगल सिपाही हथिआर ले कर आगे पीछे खड़े थे और एक तरफ सारा इतहास लिखा हुआ था।

बचपन से गुर्दुआरे में अरदास में सुनते आ रहे थे कि सिखों को चरखडिओं पर चढ़ा कर और खींच खींच कर मारा गया था, आज हमारे सामने वह सीन बनाया हुआ था । एक सिंह को चरखड़ी पर चढ़ाया हुआ था, दो बड़े बड़े पहिओं पर एक तरफ उस के पैर रस्से से बांधे हुए थे और दूसरी तरफ हाथ बांधे हुए थे और दो मुगल चरखड़ी को हैंडल से घुमा रहे थे और उस सिंह का शरीर खींचा जा रहा था और अंग खींचने की वजह से खून निकल रहा था, सारा इतहास लिखा हुआ था। आगे भाई मती दास को आरे से चिरवाया जा रहा था और शरीर दो हिस्सों में हो गया था और खून ही खून निकल रहा था। आगे का सीन वह था, जब नादर शाह ने सिखों के सरों के मोल रख दिए थे, जो कोई सिंह का सर काट कर लाए, उस को पांच रुपए मिलते थे, जो सिख के बाल काट कर लाए उस को कुछ कम पैसे मिलते थे और यह सारा सीन बनाया गया था, जो बहुत ही दर्दनाक था। आगे एक जल्लाद, भाई मती दास के बाल हाथ में पकड़े खोपड़ी को छुरी से काट रहा था और मुंह पर खून के फुहारे चल रहे थे।

इस के इलावा सिख राज का इतहास बनाया गया था, जिन में महाराजा रंजीत सिंह, हरी सिंह नलवा और अन्य बहुत से सीन थे। सब देख कर मन उदास हो गया था। अब हम पहले गुर्दुआरे के लिए दान देने चल पड़े, क्योंकि यह सब पैसे आगे इतहास दर्शाने के काम आते थे। अब एक सिंह ने हमे इस जगह की बहुत सी जानकारी दी। जब गुरु गोबिंद सिंह जी के चारे साहिबज़ादे शहीद हो गए तो यहां ही गुरु गोबिंद सिंह ने कुछ घास उखाड़ा था और हाथ में पकड़ कर कहा,” अब मुगलों का अंत हो जाएगा क्योंकि उन की जड़ें उखड़ गई हैं ” और यहां बैठ कर ही उन्होंने ज़फर नामा लिखा था जो औरंगज़ेब को एक चिठी थी और ज़फरनामा पर्शियन में लिखा हुआ है। इस में उन्होंने औरंगज़ेब को झूठा मक्कार कहा है। कहते हैं औरंगज़ेब ने गुरु जी से मिलने की इच्छा ज़ाहर की थी लेकिन औरंगज़ेब जल्दी ही मर गया था।

यह सारा मैंने कैमकॉर्डर में रिकार्ड किया था लेकिन ऐक्सीडेंटली यह डिलीट हो गया था लेकिन यह सब यादें दिल पर छप गई हैं। यहाँ से निकल कर हम एक और गुरदुआरे में चले गए जिस का नाम है ” गुर्दुआरा कमल चरण साहब “, यह गुरुदुारा वह जगह है जिस को कभी माछीवाडे का जंगल कहते थे। गुरु गोबिंद जी जब पिता जी गुरु तेग बहादर,मां, माता गुज़री और चारे साहिबज़ादे, सारा सरबंस कौम पर वार कर यहां आए थे तो उन के कपड़े फटे हुए थे और पैदल चल चल कर पैरों में छाले पढ़ गए थे, तो उन्होंने यहाँ आ कर आराम किया था। यहां ही कुछ दिन आराम करके उन्होंने उचारण किया था,” मितर पियारे नूं हाल मुरीदाँ दा कहणा “, इस जगह पर बहुत बड़ा गुर्दुआरा है। इसी वाक्यात पर जो गीत मैं बचपन में गाया करता था, लिखा गया था,” फुलां ते सौने वाले, रोड़ों पर सौ गए प्रीतम, नीआ च चनाय दो, जंग च मराए दो, पैरां चों लहू दे तुपके, कण्डिआं ते सौं गए प्रीतम”

अब हम एक और गुर्दुआरे के दर्शन करने चले गए लेकिन मुझे इस गुर्दुआरे का नाम याद नहीं, इतना याद है,इस में एक बड़ा सरोवर बना हुआ था और इस पर बड़े बड़े शेरों के बुत्त बने हुए थे। एक बात यहां हुई, उस दिन इस गुर्दुआरे में बहुत कम लोग थे और दो गियानी हमे गुर्दुआरे के बारे में बहुत कुछ बता रहे थे। उन्होंने बताया कि संत राड़े वाले जिस कमरे में भगती किया करते थे, उन का कमरा बिल्कुल उसी तरह सम्भाल कर रखा हुआ है और हम वह कमरा देखने चल पड़े जो ज़मीन के नीचे बना हुआ था। भीतर जाने के लिए दरवाज़ा बहुत छोटा सा था। जब हम कमरे में दाखल हुए तो देखा संत जी के कपड़े, बिस्तर चपल और कुछ धार्मिक किताबें रखी थीं। जब कमरा देख कर हम बाहर आए तो गियानी जी ने बताया कि संत जी इंग्लैंड में शरीर तिआग गए थे तो कुलवंत एक दम बोल पड़ी कि संत जी तो हमारे घर से सिर्फ पचास गज़ की दूरी पर ही रहते थे और वह कभी कभी वहां उस घर में जाती रहती है और उस घर के लोग यहां संत जी ने शरीर तिआग दिया था, उन का कमरा सम्भाल कर रखा हुआ है और हर साल उन की पुण्य तिथि मनाते हैं। गियानी जी इतने खुश हुए कि उन्होंने कुलवंत को कहा कि वह तो बहुत भागयवांन है।

इस गुर्दुआरे की एक मरयादा थी कि यहां लंगर तैयार नहीं होता था, सिर्फ शर्धालू लोग ही घर से बनाकर ले आते थे और वह ही संगत को छकाया जाता था। उस दिन लंगर लेकर कोई आया नहीं था लेकिन पहले दिन के कुछ फुल्के बचे हुए थे जो हम ने आचार और चाय के साथ छके। इस रोटी को सभी सिख मीठे परसादे कहते हैं और आज हमने ज़िंदगी में पहली और आखरी दफा मीठे प्रसादों का आनंद लिया। क्योंकि भूख लगी हुई थी, इस लिए यह परसादे मीठे से भी बढ़ कर लगे। लंगर खाने से बाहर आ कर हम घर की ओर रुख कर लिया, यह यात्रा भी ज़िंदगी की सुनेहरी याद है।

चलता . . . . . . . . .
 

9 thoughts on “मेरी कहानी 146

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की कथा पढ़कर प्रसन्नता हुई। धर्म के रक्षकों का विवरण एवं उनकी क़ुरबानी के बारे में पढ़कर पुरानी पढ़ी बाते ताजा हो गई। देश और धर्म पर बलिदान होने वाले गुरुओं व वीरो को कोटिशः नमन। सादर।

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, आपकी कहानी के सभी एपिसोड पढता हूँ. सभी एक से बढ़कर एक रोचक हैं. सब पर टिप्पणी नहीं कर पता इसके लिए क्षमा करें.

    • विजय भाई ,कृपा क्षमा की बात ना करें, क्योंकि मुझे पता है आप कितने मसरूफ हैं, आप पढ़ रहे हैं वोह भी इस मसरूफ जिंदगी से समय निकाल कर और यह मेरे लिए बहुत है .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, इस एपीसोड को पढ़कर लगा, जैसे हमारे सामने सब कुछ घट रहा था. धार्मिक के अलावा ऐतिहासिक नज़रिए का अपना एक अलग मज़ा है. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

    • धन्यवाद लीला बहन , इस जगह यानी मैह्दिआना साहब अब तो और भी बहुत से इतहासक सीन बनाए गए हैं और यह इंटरनेट पर भी देखे जा सकते हैं .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, यह सूचना देने के लिए शुक्रिया.

        • lila bahan ,to watch on the net please dial guruduara mahdiana sahib and most of it can be seen .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, यह सूचना देने के लिए शुक्रिया.

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, इस एपीसोड को पढ़कर लगा, जैसे हमारे सामने सब कुछ घट रहा था. धार्मिक के अलावा ऐतिहासिक नज़रिए का अपना एक अलग मज़ा है. एक और अद्भुत एपीसोड के लिए आभार.

Comments are closed.