बस का ड्राइवर अधेड़ उम्र का कोई अंग्रेज था। शायद अपने पूर्वाग्रहों से दूषित ! अपने रोज़मर्रा के एकसार जीवन से ऊबा हुआ !! अनेक कटु अनुभवों के कारण साँप की तरह सतर्क ! डंक मारने को तत्पर।
अभी-अभी आठ दस स्कूली बच्चे शोर मचाते ,एक दूसरे से उलझते, उसकी बस से उतरे थे। भूरे, गोरे, काले ! वह झल्लाया हुआ था मगर चुप। पिछली बार जब उसने बस को रोककर उन्हें फटकारा था तब एक लम्बे तगड़े लड़के ने उसकी बस का इमरजेंसी हैंडल दबा दिया था और ट्रैफिक लाइट्स पर जब बस रुकी तो दरवाज़ा स्वतः खुल गया और वह बाहर कूद गया। ड्राइवर सकते में रह गया।
तभी आगमन द्वार से एक प्रौढ़ा जमैकन स्त्री भारी भरकम शॉपिंग ट्राली घसीटती हुई बस में चढ़ी। उसके हाथ खाली नहीं थे इसलिए उसने पहले ट्राली को उसके नियत स्थान पर पहुंचाया। ट्राली फंसाकर वह वापिस मुड़ी ही थी कि ड्राइवर चिल्लाया , ” ऐ यू थीफ ! वेयर इस योर टिकट ?” ( ऐ चोट्टी , तेरा टिकट कहाँ है ? )
समझदार स्त्री ने कोई भाव नहीं दर्शाया। पर्स से अपना पास निकलकर दिखाया और शांति से दोनों हाथ उठाकर ऊपर देखते हुए मुक्तकंठ से बोली, ”भगवान जीसस ! कुत्ते की मौत दे देना मगर चोरी मत कराना इन हाथों से, जिन्हें तुमने मेहनत करके खाने के लिए बनाया था। आमीन।”
— कादम्बरी मेहरा, लंदन
प्रिय सखी कादम्बरी जी, अत्यंत सुंदर लघु कथा के लिए शुक्रिया.