हर तरफ नफ़रत की फसलें….
हर तरफ नफरत की फसलें बो रहा है आदमी।
क्यूं न जाने आदमीयत खो रहा है आदमी॥
हँस रहा है बस दिखावे के लिये झूठी हँसी।
सच यही है आज केवल रो रहा है आदमी॥
धर्म जीवन के लिये था यह कभी वरदान था।
आज केवल धर्म को बस ढो रहा है आदमी॥
खून के छीटे लिये दामन कई उजले यहाँ।
लाश पर इंसानियत की सो रहा है आदमी॥
शांत सागर है लहर कोई न तो तूफ़ान है।
कश्तियां अपनी मगर डुबो रहा है आदमी॥
देखिये अब और क्या आगे पडेगा देखना।
दाग दामन के लहू से धो रहा है आदमी॥
जुल्म की हद हो चली मौला करम कुछ कीजिये।
नाम पर तेरे ही शैतां हो रहा है आदमी॥
सतीश बंसल