कृष्ण विरह(मनहरण कवित्त)
जब ते निहारा तोरा,चंदा सा सुहाना मुख,
मोरे जियरा में जाने, कैसी लगी आग है |
ऐसी में मगन भई, लोकलाज भूल गई,
चित्तचोर मोहन से, लगी मोरी लाग है |
तुम तो निर्मोही बन, मोह गये मेरो मन,
पल-पल तड़पावे, कैसो अनुराग है ?
विरह में जल रही, चैन एक पल नहीं,
हाय रे विधाता कैसे? फूटे मोरे भाग है |
बहुत ही सुन्दर रचना । शाबाश !